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*बिहार की राजनीति-जातिवाद के कैद में*

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 02 नवम्बर :: बिहार विधान सभा चुनाव के लिए आज यानी 03 नवम्बर को वोट पड़ेंगे। विपक्ष के बेरोजगारी जैसे मुद्दे के बावजूद चुनाव का जातीय आधार पर होना लगभग तय है। जातीय आधार पर बिहार में चुनाव कोई नयी बात नहीं है।

चुनाव आयोग की घोषणा के बाद से सभी पार्टियाँ बिहार विधान सभा चुनाव के अभियान में जुट गयी थी। कोरोना से लड़ाई का अभियान पीछे छूट गया और चुनावी अभियान पटरी पर दौड़ने लगा।

बिहार में चुनाव में जाति का समीकरण न हो, ऐसा हो नहीं सकता है। बिहार की राजनीति में जातिवाद अहम मुद्दा होता है। वैसे तो पूरे देश में चुनाव के समय जातीय समीकरण की भूमिका अहम होती है।

कहा जाता है कि बिहार में चुनाव के समय जातिवाद समीकरण पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहने की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है। 1990 में मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद से जातीय समीकरण तेजी से बदले थे। 1990 के बाद विधान सभा चुनावों के नतीजों से स्पष्ट है कि गठजोड़ की राजनीति हावी है। खंडित जनादेश के कारण कोई पार्टियाँ अकेले सरकार नहीं बना पा रहा है। इसका कारण है बिहार के मतदाताओं का जाति के आधार पर बंट जाना।

पूर्व राजद अध्यक्ष ने 1995 में बयान दिया था- भूरा बाल साफ करो। उनके इस बयान से बिहार की सवर्ण राजनीति अभी तक उबर नहीं सका है। आगे भी उबरने की उम्मीद नहीं दिखती है।

बिहार के इसी जातीय समीकरण को भांपते हुए बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी सोशल इंजीनियरिंग आधारित ‘न्यू कास्ट अलाइनमेंट’ राजनीतिक पैटर्न अपनाया।

बिहार की राजनीति में अति सक्रिय जातियों में भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, कोईरी, कुर्मी, दलित, बनिया, कहार, धानुक और मल्लाह शामिल हैं।

जाति आधारित बिहार की राजनीति में अगर वोट की जातिगत स्थिति पर गौर करें तो सबसे ज्यादा 51 प्रतिशत आबादी ओबीसी, 14.4 प्रतिशत यादव, 6.4 प्रतिशत कुशवाहा-कोइरी, 4 प्रतिशत कुर्मी और करीब 16 प्रतिशत दलितों की आबादी है। जबकि बिहार में सवर्णों की आबादी करीब 17 प्रतिशत है, जिसमें भूमिहार 4.7 प्रतिशत, ब्राह्मण 5.7 प्रतिशत, राजपूत 5.2 प्रतिशत और कायस्थ 1.5 प्रतिशत हैं। वहीं सूबे में 16.9 प्रतिशत मुस्लिम आबादी भी मौजूद है।

सच्चाई यही है कि देश की राजनीति आज जातिवाद के कैद में है।

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