महाराणा प्रताप : जिनके लिए मेवाड़ सिर्फ एक राज्य नहीं था

वहीं दूसरी तरफ अकबर के लिए मेवाड़ पर जीत आर्थिक और धार्मिक लिहाज से काफी अहम थी।मेवाड़ में एक रीति है।उत्तराधिकारी अपने पिता के अंतिम संस्कार में नहीं जाता।शुरुआत इसी बात से करते हैं।फ़रवरी, 1572 में उदयपुर से कोई 20 मील दूर माउंट आबू की तरफ, गोगुन्दा में राणा उदय सिंह का अंतिम संस्कार हो रहा था।सभी सामंत, ठाकुर और बड़े कुंवर प्रताप सिंह सिसोदिया वहां मौजूद थे।लेकिन उदय सिंह के छोटे बेटे, कुंवर जगमाल नदारद थे।खटका हुआ कि आख़िर वे कहां हैं ? कुंवर सगर (राजकुमार और उदयसिंह के एक और पुत्र) से पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘हुकम स्वर्गवासी होने से पहले कुंवर जगमाल को एकलिंग जी का दीवान नियुक्त कर गए हैं (उदयपुर के सिसोदिया यह मानते हैं कि शासन एकलिंग भगवान का है और वे उनके दीवान हैं)।चुंडा अक्षयराज सोनगरा (सामंतों के सरदार) ने उन्हें यह कहकर बीच में रोक लिया कि सामंतों की इच्छा तो कुंवर प्रताप हैं।सामंतों की चली, इतिहास हमेशा के लिए मुड़ चुका था और प्रताप उदयपुर के राणा बने।

उधर अकबर, जो प्रताप से डेढ़ बरस छोटे थे, मेवाड़ जीत लेने की ख्वाहिश पाले हुए थे।हालांकि क्षेत्रफल के लिहाज से मेवाड़ ऐसा कोई बड़ा राज्य नहीं था जिसे जीत लेने की चाह रखी जाए।पूर्व में बंगाल, पश्चिम में अफ़गानिस्तान और दक्षिण में गोदावरी तक मुग़ल साम्राज्य फैला हुआ था।वरिष्ठ पत्रकार और ‘महाराणा प्रताप’ किताब के लेखक राजेन्द्र शंकर भट्ट लिखते हैं, ‘अकबर और प्रताप दोनों ने बहुत सोच-समझकर ही एक दूसरे के प्रति अपनी नीति निर्धारित की थी।लिहाज़ा तलवारें टकराने से पहले दोनों ही सुलह करना चाहते थे, जिसके लिए हर बार पहल अकबर ने की।
सुलह की कोशिशें और सिसोदियाओं का ‘आत्मसम्मान’
अकबर ने सबसे पहले जलाल खान कोरची के हाथों दोस्ती का पैगाम पहुंचाया। ‘सिसोदियाओं ने अपनी बेटी तुर्कों को नहीं दी है।दोस्ती करनी होती तो पहले ही कर लेते’ यह कहकर कोरची को रवाना कर दिया. अकबर का जमावड़ा उस वक़्त अहमदाबाद में था।अगली बार आमेर (जयपुर) के कुंवर मान सिंह को भेजा गया।
राणा प्रताप ने उदय सागर के पास गोठ (भोजन की व्यवस्था) रखी।लेकिन जब गोठ में प्रताप नहीं आए तो मान सिंह ने पूछा, ‘हुकम क्यों नहीं आये ?’ जवाब मिला कि हुकम का हाज़मा ख़राब है।’ मान सिंह समझ गए।उन्होंने नाराज होकर कहा, ‘मैं सुलह के लिए आया था, लेकिन लगता है आप लोग चाहते ही नहीं।आपकी भलाई चाही थी, आगे होशियार रहिएगा।’ प्रताप तक ये जवाब पहुंचा तो उन्होंने सामंत भीम सिंह से कहलवा दिया, ‘आप एक राजपूत की हैसियत से आएंगे तो आपका मालपुरा (आमेर रियासत की आख़िरी तहसील) तक मनुहार और सम्मान किया जाएगा।अगर अपने फूफ़ा के जोर से आयेंगे तो जहां मौका होगा वहां खातिर करेंगे।’
यह ’व्यंग्य बाण’ आगरा के सुलतान यानी अकबर की तरफ था।इस प्रतिक्रिया ने जैसे मान सिंह का दिल चीरकर रख दिया।उनका जवाब था, ‘यदि आपकी यही इच्छा है तो आप संकटों में रहें क्यूंकि यह देश अब आपको नहीं रख पायेगा।’
ठाकुर भीम सिंह ने मूंछों पर ताव देते हुए कहा, ‘कुंवर, छोटे हो और दूत हो इसलिए सुन लिया।तुम जिस हाथी पर चढ़कर आओगे, उस पर भाला न मारूं तो सिसोदियाओं का खून न कहलाऊं।’ मान सिंह तिलमिला गए और आखिरकार वहां से चल दिए।ठाकुर भीम सिंह से पीछे से कहा, ‘कुंवर, अपने फूफा को लेकर जल्दी आना।’
किस्सा सुनकर बादशाह ख़ामोश रहे।वे प्रताप का ज़ोर जानते थे।एक वीर ही दूसरे वीर को समझ सकता है।उन्होंने मान सिंह के पिता महाराज भगवंत दास को भेजा। पर बात अब भी नहीं बनी।आख़िरी बार उन्होंने राजा टोडरमल को भेजा।समझौता सिर्फ इतना भर ही था कि प्रताप अकबर की सरपरस्ती में आ जाएं।अपने बेटे अमर सिंह को आगरा दरबार में भेज दें और आराम से उदयपुर के राजा बने रहें।
जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि अपने आप में मेवाड़ ऐसा राज्य नहीं था जिसके लिए मुगलिया सल्तनत के मुखिया को इतना सब्र दिखाना पड़े. यानी वे कुछ और ही कारण होंगे जिनकी वजह से अकबर प्रताप से सुलह करना चाहते थे।इतिहास इन कारणों को कुछ यूं समझाता है।
यूरोप और मध्य एशिया से व्यापार
वास्को डी गामा ने यूरोप और हिंदुस्तान को समुद्र के ज़रिये जोड़ दिया था।सूरत बंदरगाह से यूरोप तक माल की आवाजाही होने लगी थी।अकबर ने शेरशाह सूरी वाला व्यापारिक मॉडल अपनाया और विदेशी व्यापरियों को काफी सहूलियतें दीं।बाहर से आने वाले सामान पर टैक्स और अन्य लगान भी कम वसूला जाता था जो कि सामान के मूल्यानुसार ढाई प्रतिशत से भी कम था।
वहीं हिंदुस्तान के मसाले जैसे हींग और काली मिर्च के अलावा कपास, नील, नमक, लाख आदि की यूरोप के बाजारों में ज़बरदस्त मांग थी. यूरोप से आने वाली चीज़ों में रेशम, घोड़े, कीमती सजावटी सामान और सबसे अहम वहां की शराब और बंदूकें थी।मुग़लों में उन दिनों शराब पीने का रिवाज़ था।
हिंदुस्तानी सामान की यूरोप और खाड़ी के देशों में इतनी ज़बरदस्त मांग थी कि यहां के व्यापारी माल की कीमत -सोने और चांदी में वसूलते थे।इसी बात को अंग्रेज अधिकारी थॉमस रो (1581-1644) ने कुछ यूं लिखा है, ‘हिंदुस्तान यूरोप का खून चूस लेता है।’इसके साथ ही यहां आयातित सामान की खपत कम थी।अर्थशास्त्री गुरचरण दास ने अपनी किताब ‘उन्मुक्त भारत’ में लिखा है कि मध्यकालीन भारत की विश्व के व्यापार में बड़ी हिस्सेदारी थी।अकबर के काल में हिंदुस्तान आधी दुनिया के लिए सूती कपड़ों का निर्यातक बन गया था।
कुल मिलाकर व्यापार बहुत फल-फूल रहा था और बादशाह सलामत के ख़जाने और ऐश के साजो-सामान दोनों में बढ़ोतरी हो रही थी।इस लिहाज से देखें तो यह माना जा सकता है कि मेवाड़ से संधि के लिए अकबर पर दबाव सल्तनत के बड़े व्यापारियों का था।राजनीति विज्ञान के अध्येता हेनरी वर्ड बीचर ने कहा है, ‘यह मिथ्या है कि शासन राजा का होता है।दरअसल राज तो व्यापारी करता है।’
अकबर के इस लक्ष्य में सबसे बड़ी अड़चन महाराणा प्रताप ही थे।इसलिए कि आगरा से सूरत जाने के रास्ते में मेवाड़ राज्य आता था।यूं तो मेवाड़ का लगभग आधा हिस्सा अकबर के अधीन था और यहां पर उन्होंने चौकियां भी स्थापित करवाई थीं, पर प्रताप के होते यह रास्ता निष्कंटक नहीं था।प्रताप भी यह बात बखूबी जानते थे।
गुजरात पर पकड़ मज़बूत करना
ठीक इसी प्रकार गुजरात यानी एक अमीर राज्य पर अकबर की पकड़ तभी मज़बूत हो सकती थी जब बीच में प्रताप का खटका न हो।
हज की यात्रा सुनिश्चित करना
अकबर पहले शासक थे जिन्होंने हज की यात्रा शुरू करवाई थी और इसके लिए वे पैसा भी देते थे. उस वक़्त हज जाने के दो ही रास्ते थे–जमीन और समुद्र।इस्लामिक इतिहासकार डाक्टर मज़हर नक़वी लिखते हैं, ‘चूंकि जमीन के रास्ते में काफी मुश्किलें थी लिहाज़ा, अकीदतमंद समुद्र के रास्ते जाना पसंद करते थे।’ अकबर ने पुर्तगालियों के साथ समझौते में समुद्री डाकुओं की समस्या पर तो काबू पा लिया था पर मेवाड़ का मसला सुलझ नहीं रहा था।हालांकि, उन्होंने लगभग पूरे रास्ते पर सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था कर दी थी।उनके प्रयासों की वजह से हज की यात्रा काफी सुगम हो गयी थी और सूरत को बाब-अल-मक्का (मक्का जाने का दरवाज़ा) कहा जाने लगा था।इतिहास में एक दिलचस्प वर्णन मिलता है कि बादशाह सलामत के हरम की ज़नानियां 1576 में हज करने गयी थीं।
खैर, जब बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकला तो लड़ाई ही आख़िरी विकल्प बचा था।
जब महाराणा प्रताप की सेना एक मुस्लिम और अकबर की एक हिंदू सेनापति की कमान में आमने-सामने आईं
21 जून साल का सबसे लंबा दिन होता है।1572 की उस रोज़ लगभग तेरह घंटे का दिन था।सूर्यदेव दक्षिणायन होने को जा रहे थे जब हल्दी घाटी में कोहराम मच गया। अकबर ने उन्हीं मान सिंह को भेजा था।हिंदुस्तान के इतिहास में दर्ज़ सबसे ख़ूनी लड़ाइयों में से एक इस मायने में दिलचस्प थी कि मुग़लिया सेना की सरपरस्ती एक राजपूत के हाथों थी और महाराणा प्रताप की सेना की कमान एक पठान, हाकिम खां सूरी के हाथ में।
पहर चढ़े जमकर जंग हुई।लड़ाई के शुरुआती घंटे तो राजपूतों के पक्ष में थे।महाराणा प्रताप और उनकी सेना अपने पूरे वेग में थी।वे खुद चेतक को उड़ाते हुए मान सिंह के ठीक सामने आ डटे।भरी जंग में उन्होंने चेतक की लगाम कसी और ऐड़ लगाकर हिनहिनाते चेतक ने आगे के दोनों पैर मान सिंह के हाथी की सूंड पर टिका दिए। राणा ने अपना भाला मान सिंह को निशाना करके चला दिया।मान सिंह हौदे में झुक गए और बच गए।लेकिन हाथी की सूंड पर लगी तलवार से चेतक ज़ख़्मी हो गया।प्रताप घिर गए कि तभी उनके एक साथी झाला वीदा सरदार ने प्रताप के हाथों से राज्य चिन्ह बलपूर्वक छीन लिया और उन्हें निकल जाने को कहा।प्रताप बच गए और वीदा उस दिन के बाद से अमर हो गए।
जंग में यकीनन जीत मान सिंह की हुई पर राणा को जिंदा या मुर्दा पकड़ने का अकबर को दिया हुआ अहद पूरा नहीं हुआ।फिर कई और जंगें हुईं।अकबर ने भी खुद अपने आप को जंग में खपाकर प्रताप से लोहा लिया पर उन्हें पकड़ने में कामयाब नहीं हुए।हर बार जीते हुए इलाकों में मुगलिया चौकी बना दी जातीं और सेना के लौट जाने के बाद पहाड़ों में छिपे हुए प्रताप और उनकी सेना बाहर आकर उन्हें ध्वस्त कर देती।हर जंग का यही अंजाम था।बाद में अकबर भी थक गए।महाराणा प्रताप ने बहुत कम समय में अपना खोया हुआ राज्य काफी हद तक पा लिया था।
कई इतिहासकारों ने महाराणा प्रताप को भगोड़ा कहा है। लेकिन यह उन्हें देखने का निहायत ही संकीर्ण नजरिया है।प्रताप का उद्देश्य मरना नहीं, मेवाड़ को बचाए रखना था। इतिहासकारों ने शिवाजी के लिए भी यही कहा है।लेकिन अगर हुमायूं भगोड़ा न होता तो हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और ही होता।कुल मिलकर बात यह है कि किसी काम के पीछे उद्देश्य महान होता है, न कि व्यक्ति का भाग जाना या मर जाना।अकबर के मेवाड़ जीतने के उद्देश्य कमतर थे पर राणा के मेवाड़ बचाने के उद्देश्य महान थे।वे अस्मिता, शान, इज़्ज़त और आज़ादी के लिए लड़ रहे थे।