ब्रेकिंग न्यूज़राज्य

विभा धवन, महानिदेशक, द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी), नई दिल्ली; किरण कुमार शर्मा, प्रोग्राम डायरेक्टर, सस्टेनेबल एग्रीकल्चर, द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) तथा इंटरनेशनल क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर द सेमी-एरिड ट्रॉपिक्स (इक्रीसैट) के पूर्व डिप्टी डायरेक्टर जनरल फॉर रिसर्च।।..

खाद्य और पोषण सुरक्षा: क्या विज्ञान मददगार हो सकता है?

त्रिलोकी नाथ प्रसाद :-पिछले कुछ दशकों में, विज्ञान ने दुनिया भर में भोजन, चारे एवं पशुग्रास के लिए फसलों में सुधार लाने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। दिलचस्प बात यह है कि फसल और स्वास्थ्य की देखभाल से जुड़ी प्रणाली में लगातार विकासात्मक बदलाव आया है, जिससे हमें हर गुजरते दशक के साथ नई तकनीकों की खोज करने में मदद मिली है। हालांकि वैश्विक स्तर पर, बढ़ती मानव आबादी और अधिक पौष्टिक एवं सुरक्षित तरीके से उत्पादित भोजन की बढ़ती चाहत के कारण भोजन की मांग में वृद्धि हुई है। इसके अलावा, हाल की भू-राजनैतिक स्थिति ने खास तौर पर निकट भविष्य में खाद्य और पोषण सुरक्षा संबंधी चिंताओं को बढ़ा दिया है। इस प्रकार, न केवल कैलोरी संबंधी जरूरतों बल्कि प्राकृतिक संसाधनों से पोषण संबंधी सुरक्षा की गिरती अवस्था के संदर्भ में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना एक अहम चुनौती बन गया है। इसलिए, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर कृषि अनुसंधान प्रणालियों ने इन जरूरतों को पूरा करने हेतु एक कम समय-सीमा में बेहतर लचीली उच्च उपज देने वाली किस्मों को हासिल करने के लिए लक्ष्य निर्धारित किए हैं। आनुवंशिक लाभ की दर में वांछित वृद्धि को पाने के लिए “गेम चेंजिंग” लक्षणों वाले परिवर्तनकारी उपाय मुहैया कराने के लिए आधुनिक फसल प्रजनन प्लेटफार्मों में सटीक पादप प्रजनन (प्रिसिजन प्लांट ब्रीडिंग) को तेजी से कार्यान्वित किया जा रहा है। जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियां और अब क्रिस्पर वैसी संभावनाएं उपलब्ध कराता है जो अधिकांश पारंपरिक प्रजनन तकनीकों की पहुंच से परे हैं। यहां यह इंगित करना महत्वपूर्ण है कि मार्कर-असिस्टेड प्रिसिजन ब्रीडिंग और जीएम-टेक्नोलॉजी समेत कृषि-जैव प्रौद्योगिकी (एग्रो-बायोटेक्नोलॉजी) अव्यावहारिक लक्षणों, जो पारंपरिक तकनीकों द्वारा हासिल करने की दृष्टि से कठिन हैं, को मुहैया कराने हेतु पादप-प्रजनन कार्यक्रमों को बेहतर बनाने की प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण और सफल उपकरण बन गए हैं। इन तकनीकों का उद्देश्य स्थायी कृषि की ओर अग्रसर होना और बार– बार हो रहे जलवायु परिवर्तन की परिघटनाओं के प्रति लचीलापन प्रदान करना है।

भारतीय संदर्भ में, 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से भारत सरकार ने देश में कृषि-जैव प्रौद्योगिकी (एग्रो-बायोटेक्नोलॉजी) के विकास को उच्च प्राथमिकता और ठोस समर्थन प्रदान किया है। वर्ष 1985 में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत जैव प्रौद्योगिकी (बायोटेक्नोलॉजी) का एक अलग विभाग स्थापित किया गया। यह कदम भारत को खाद्यान्नों का एक प्रमुख वैश्विक निर्यातक बनाने के अलावा भारत को कृषि-जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया के अग्रणी देशों में से एक बनाने, इस स्वदेशी तकनीकी विकास को भारतीय जरूरतों के अनुरूप ढालने, भारतीय फसल की पैदावार को ‘हरित क्रांति’ के दौरान हासिल की गई ऊंचाइयों तक फिर से पहुंचाने और भारत को भविष्य की खाद्य संबंधी मांगों के अनुरूप आत्मनिर्भर बनाने सहित कई महत्वाकांक्षाओं से प्रेरित है।

वैश्विक स्तर पर आनुवंशिक रूप से संवर्धित फसलों का बाजार 6.9 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ते हुए 2021 में 19.72 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2022 में 21.08 बिलियन अमेरिकी डॉलर का हो गया। इस बाजार का 2026 में 5.8 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ते हुए 26.38 बिलियन अमेरिकी डॉलर का हो जाने की उम्मीद है (https://www.thebusinessresearchcompany.com/report/genetically-modified-crops-global-market-report)। यह भारत के लिए वैश्विक प्लांट बायोटेक के क्षेत्र में एक प्रमुख प्रतिभागी बनने का एक बड़ा अवसर प्रदान करता है।

आनुवंशिक रूप से संवर्धित सरसों के व्यावसायीकरण के लिए स्वीकृति सहित कुछ हालिया प्रगति तिलहन क्षेत्र में स्थिरता लाने की ओर अग्रसर है। यह माना जा सकता है कि इसी तरह की उन्नत और व्यावसायीकरण योग्य प्रौद्योगिकियां बायोटेक फसलों के बड़े उभरते बाजार में एक प्रमुख वैश्विक प्रतिभागी के तौर पर भारत को अग्रणी बना देंगी।

भारतीय सार्वजनिक क्षेत्र से आने वाली संकर प्रौद्योगिकी (हाइब्रिड टेक्नोलॉजी) का ऐसा ही एक नवाचार हाल ही में स्वीकृत धारा सरसों हाइब्रिड-11 (डीएमएच-11) है, जो आनुवंशिक रूप से तैयार की गई सरसों की एक किस्म है। सरसों मुख्य रूप से राजस्थान, हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश राज्यों में 6-7 मिलियन हेक्टेयर में उगाई जाती है। भारत अपनी खाद्य तेल की जरूरतों का लगभग 55-60 प्रतिशत हिस्सा आयात करता है। वर्ष 2020-21 के दौरान लगभग 13.3 मिलियन टन खाद्य तेल का आयात 1.17 लाख करोड़ रुपये की लागत से किया गया था। यह मुख्य रूप से तिलहन सरसों से लगभग 1-1.3 टन प्रति हेक्टेयर की कम उत्पादकता के कारण है, जो दो दशकों से अधिक समय से स्थिर बनी हुई है। प्लांट हाइब्रिड आमतौर पर एक ही प्रजाति के दो आनुवंशिक रूप से विविध पौधों को संकरित करके एक ऐसा पौधा प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है जिसकी पैदावार जैविक रूप से विविध किस्म के माता-पिता की तुलना में अधिक होती है। सरसों के एक स्व-परागित फसल होने के कारण, इसकी स्थिरता और उच्च उत्पादकता की वांछित विशेषताओं को लाना पादप प्रजनकों के लिए एक कठिन काम होता है। सरसों की डीएमएच-11 किस्म, वास्तव में हाइब्रिड तकनीक का उपयोग करके वरुणा और अर्ली हीरा-2 किस्मों के बीच संकरण का परिणाम है, जिसकी न केवल उपज अधिक है, बल्कि यह अपेक्षाकृत अधिक उपजाऊ भी है। तीन वर्षों की अवधि में आठ स्थानों पर किए गए अखिल भारतीय समन्वित परीक्षणों से यह पता चला है कि डीएमएच-11 की उपज अपने मूल वरुण की तुलना में 28 प्रतिशत अधिक है और जोनल चेक की तुलना में 37 प्रतिशत बेहतर है।

दिलचस्प बात यह है कि अपने आप में ही अंतिम होने के बजाय, आनुवंशिक रूप से संवर्धित संकरित किस्म डीएमएच-11 का विकास जैव प्रौद्योगिकी (जेनेटिक इंजीनियरिंग) के साथ-साथ हाइब्रिड सिस्टम की सफलता का संकेत देता है। इस प्रौद्योगिकी में बार, बार्नेज और बारस्टार जीन प्रणाली शामिल है। जहां बार्नेज जीन पुरुष बांझपन पैदा करता है, वहीं बारस्टार जीन उर्वरता को पुनर्स्थापित करता है जिससे उपजाऊ बीजों का उत्पादन सुनिश्चित होता है। तीसरा जीन बार, ग्लूफ़ोसिनेट के लिए प्रतिरोध प्रदान करता है। इस प्रकार, इस विकसित प्रौद्योगिकी के लाभ डीएमएच-11 तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसे बेहतर गुणवत्ता वाले उन नए संकरों के विकास के लिए एक आधार प्रौद्योगिकी के रूप में माना जा सकता है, जो भारत के बढ़ते खाद्य-तेल आयात खर्च को कम करने के लिए जरूरी हैं।

कुल मिलाकर, इस किस्म की नवीन प्रौद्योगिकियां भारत को एक प्रमुख खाद्य प्रदाता के रूप में अग्रणी बनाने वाली भारतीय कृषि के लिए गेम चेंजर साबित हो सकती हैं। इस दिशा में भारत को आगे बढ़ाने के लिए यह जरूरी है कि नवाचार का एक मजबूत इकोसिस्टम विकसित किया जाए और उसे समर्थन प्रदान किया जाए। कोविड-19 महामारी ने बहुत अच्छी तरह से यह दिखलाया है कि भारतीय विज्ञान अपने स्टार्ट-अप इकोसिस्टम पर पूंजी लगाने के अलावा, अपने सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की सक्रिय भागीदारी के माध्यम से उभरती चुनौतियों का जवाब दे सकता है। हमने न सिर्फ घरेलू बाजार के लिए बल्कि वैश्विक बाजारों के लिए भी टीके और नैदानिक एवं संबंधित उपकरण विकसित करने के मामले में बढ़ती हुई आत्मनिर्भरता दिखाई है।
——–

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button