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सेना में 24 साल की सेवा यदि संघर्ष के दिन थे , तो आज भी कोई फूलों की सेज पर नहीं गुजर रहे हैं – दामोदर मिश्र

यह तस्वीर 31 जनवरी 2003 की है। यह मेरी सेना की वर्दी में आखरी तस्वीर है। 31 जनवरी 2003 को मैं भारतीय सेना से स्वेच्छा से सेवानिवृत्त हुआ था। आज सेवानिवृत्ति के जीवन का पूरे 20 साल बीत गए।

केवल सच – पलामू

मेदनीनगर – बीस वर्ष का अंतराल मायने रखता है। बीस वर्षों के बाद, आज कठिन संघर्ष और आपा धापी से गुजरते हुए, एक मुकाम पर खड़ा हूं। सेना के सेवा के दौरान गुजारे हुए 24 साल, अगर संघर्ष के दिन थे, कठिनाइयों से मुकाबला करना था और कठिन परिस्थितियों में सेवा देनी थी, तो, सेवानिवृत्ति के बाद के 20 साल भी फूलों के शेज पर नहीं गुजरे।

अनुभवहीनता के कारण सेवानिवृत्ति के बाद, सेवानिवृत्ति के मिले हुए पावने को जैसा हर सैनिक करता है, मैंने भी कुछ नए नए व्यवसाय शुरू करने में लगा दिए थे। जहां मुझे असफलता ही हाथ लगी। फिर शुरू हुई असमंजस की स्थिति, जिस ने मुझे लगभग तोड़ कर ही रख दिया था।

लेकिन मेरे अंदर के सैनिक कहां हारने वाला था! प्रारंभ हुआ, फिर एक दौड़। तीन साल के लिए मध्य प्रदेश एक्साइज डिपार्टमेंट में संविदा पर दरोगा बना। सारी अहर्ताएं रखते हुए भी, वहां भी बदकिस्मती ही हाथ लगी, और संविदा 03 साल के निर्धारित अवधि के बाद समाप्त कर दिया गया। उसके बाद कॉर्पोरेट जगत में लगभग दर्जन भर कंपनियों में सुरक्षा अधिकारी, सुरक्षा सलाहकार, सुरक्षा मैनेजर और पता नहीं किस किस दायित्व पर काम करने के बाद, जब थोड़ी राहत मिली तो अपने ही सैनिक भाइयों की सेवा करने के लिए अखिल भारतीय पूर्व सैनिक सेवा परिषद में एक मुकाम हासिल किया।

लेकिन अंतर्मन में 1989 से 1992 तक विहिप और बजरंग दल के साथ जो जुड़ाव था, वह कहीं न कही जिंदा था। राम मंदिर निर्माण के लिए निधि समर्पण अभियान में मिली जिम्मेदारी और हिंदुत्व के प्रति समर्पण ने मुझे एक बार फिर से विश्व हिंदू परिषद के जिला मंत्री के रूप में प्रतिस्थापित किया। और सफर जारी है ………..

चरैवेति चरैवेति, वंदे मातरम जय श्री राम।

जय हिंद, जय हिंद की सेना।

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