*पार्ट : २ : कहाँ गए वो दिन*

लेखक: -बिहार प्रदेश के पूर्व महानिदेशक की कलम से
घटना करीब 4 दशक पूर्व की है। केवल 4 वर्षों का सेवा काल होगा। कोसी क्षेत्र में एक नव सृजित ज़िले का पहला पुलिस अधीक्षक बनाया गया था। “सिर मुंडाते ही ओले पड़े” वाली युक्ति मानो मेरे लिए ही बनाई गई थी। मेरे हाथ में काग़ज़ के दो टुकड़े थे, एक में नए ज़िले की रचना और दूसरे में मेरे पुलिस अधीक्षक के रूप में पदस्थापन का सरकारी आदेश। एक पुलिस अधीक्षक के दायित्व का एहसास भी नहीं था क्योंकि उस पद पर पहली नियुक्ति थी।
बिहार के मानचित्र पर यह स्थान कहां है, कैसे जा रहे हैं और वहां का का स्थान मिलेगा कि नहीं, आदि यक्ष प्रश्न मुँह बाए खड़े थे। पुलिस प्रमुख से धन्यवाद देने के बहाने मिला और पूछा गया कि एक जीप रहने दें ताकि कम से कम मैं अपने लिंक तक पहुँच सकूँ। उत्तर बहुत अनूठा था। “अंग्रेज़ सात समुद्र पार से आकर जब इस देश में पाँव फैला सकते हैं, तो आप अपना रास्ता इस प्रदेश में नहीं ढूंढ सकते हैं?” ज़मीर को मानो हज़ार वोल्ट का झटका लगा। स्वाभिमान जा। मैंने सैल्यूट किया। उसी समय उन्होंने एक काग़ज़ और मुझे दे दिया और कहा कि एक विधान सभा क्षेत्र में उपचुनाव होना है, पहुँचते ही उसकी तैयारी है। स्वाभिमान का भाव उन्होंने एक ही वाक्य में इतना बढ़ा दिया कि यद्यपि मुझे इस बात का एहसास था कि मेरे पास काग़ज़ के टुकड़ों के अलावा कुछ नहीं है जिस पर सरकारी आदेश छपे हैं, हालांकि जुनून था कि ज़िले के लोगों को बिल्कुल एहसास नहीं होने के कारण कि उनकी पुलिस अधीक्षक शून्य संसाधन पर काम कर रही है।चुनाव की तैयारी के दौरान, राज्य के मुख्यमंत्री और 3 काउंटर चिकित्सकों के समक्ष बगल के ज़िले में मेरी पेशी हुई। चुनाव आयोग का हमने नाम भी नहीं सुना था। निष्पक्ष चुनाव के बारे में और उसके विचारों का एहसास भी था। पेशी के दौरान मुख्यमंत्री जी और उनके सहयोगियों से ज्ञान मिला जो मेरे सिर के ऊपर से निकल गया। अंत में, मैंने उनसे स्पष्ट रूप से इतना ही कहा कि आपको एक भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जो कह दे कि उसे वोट देने से रोक दिया गया है, लेकिन, वह वोट देने से या नहीं और वोट देंगे तो किसको, यह मेरा काम नहीं।मुसलमान ये मामले में निश्चित ही मुझे अधिक समझदार थे, तो वे चुप रहे, लेकिन उन्होंने उस ज़िले में एक बहुत ही योग्य पुलिस अधिकारी को अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक बना कर भेज दिया। शायद मुझ पर नियंत्रण रखने के लिए।वाह पदाधिकारी जब चुनाव के 4 दिन पूर्व आए,
जैसा बुद्धि ईश्वर ने मुझे दी थी, उसने मैंने पूरी मनोयोग से लगा दी थी। किसी भी संस्था या पदाधिकारी का सहयोग या हस्तक्षेप नहीं था। हाँ, ज़िला पदाधिकारी का भरपूर सहयोग मिला। वह भी मेरी तरह ही नए थे।
चुनाव के दिन मैंने देखा कि एक प्रतिद्वंद्वी कैबिनेट मंत्री राज्य मुख्यालय से पुलिस बल के साथ क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे। मैंने उन्हें तुरंत रोका और तुरंत लौटने को कहा। थोड़ा आना-कानी की तो मुझे अपनी भाषा सख़्त करनी पड़ी। वे मान गए ।चुनाव पश्चात हज़ारों की संख्या में लोग मिले जिनकी उम्र काफ़ी अधिक थी, जिन्होंने बताया कि आँख से बहुत चुनाव देखते हैं लेकिन वोट पहले बार दिए गए।सुखद अनुभूति हुई। अब ये सवाल उठता है मन में कि इतनी शक्तिशाली संस्थाएं इस देश में हैं, फ़िर भी आम आदमी के मन में संतोष का भाव क्यों नहीं है?