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परिस्थितियां कैसी भी हों हमें अपना कार्य पूरे मनोयोग से करना चाहिए – नवेन्दु मिश्र

 

 

केवल सच – पलामू

  •  मेदिनीनगर -एक मन्दिर था, उसमें सभी लोग नौकरी पर थे। आरती वाला, पूजा वाला, माली, घण्टी बजाने वाला आदि आदि।
    सबकी तनख्वाह पदक्रमानुसार था जिसमे घण्टी बजाने वाले गरीब का सबसे कम था। पर वह अपना काम इतने समर्पण से करता कि लगता कि प्रभु में एकमेव हो गए। मन्दिर में आने वाले सभी व्यक्ति भगवान के साथ साथ घण्टी बजाने वाले व्यक्ति के भाव के भी दर्शन करते थे। उसकी भी वाह वाह होती थी।

एक दिन मन्दिर का ट्रस्ट बदल गया और नये ट्रस्टी ने आदेश जारी किया कि मन्दिर में काम करने वाले सब पढ़े लिखे होना जरूरी है। जो पढ़े लिखें नहीं है, उन्हें निकाल दिया जाएगा।

उस घण्टी बजाने वाले भाई को भी ट्रस्टी ने कहा कि: तुम्हारी आज तक का पगार ले लो। कल से तुम नौकरी पर मत आना। उस घण्टी बजाने वाले व्यक्ति ने बहुत विनती कि
कहा: साहेब भले मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, परन्तु इस कार्य में मेरा भाव भगवान से जुड़ा हुआ है,
पर उसकी ना सुनकर निकाल दिया गया।

दूसरे दिन से मन्दिर में नये लोग थे। परन्तु आरती में आये लोगो को अब पहले जैसा मजा नहीं आता था।

घण्टी बजाने वाले व्यक्ति की सभी को कमी महसूस होती थी। कुछ लोग मिलकर घण्टी बजाने वाले व्यक्ति के घर गए, और विनती करी कि तुम मन्दिर आओ। उस भाई ने जवाब दिया: मैं आऊंगा तो ट्रस्टी को लगेगा कि मैं नौकरी मांगने आया हूं। जो नियमानुसार गलत है इसलिए मैं नहीं आ सकता। वहाँ आये हुए लोगो ने एक उपाय बताया कि मन्दिर के बराबर सामने आपके लिए एक दुकान खोल देते हैं। वहाँ हार-फूल, माला और पूजा सामग्री बेचना, तत्पश्चात आरती के समय घण्टी बजाने आ जाना, फिर कोई नहीं कहेगा तुमको नौकरी की जरूरत है।

उस भाई ने मन्दिर के सामने दुकान शुरू की और आरती के समय आकर नियमित रूप से घण्टी बजाने लगा । उसके मधुर व्यवहार से दुकान इतनी चली कि एक दुकान से दो, दो से तीन और ऐसे ही सात दुकान हो गयी। और समय के साथ साथ 7 से 25 अलग अलग प्रकार के दुकान।
ऊसके व्यवहार और समर्पण से हर ग्राहक खुश था। 25 दुकानो के बाद अब वह एक फैक्ट्री का मालिक बन चुका था। पर उसने घण्टी बजानी नही छोड़ी। अब वो आदमी BMW से ड्राइवर के साथ घण्टी बजाने आता था।
समय बीतता गया। ये बात पुरानी हो गयी…वर्षों बाद मन्दिर का ट्रस्टी फिर बदल गया। नये ट्रस्ट को नया मन्दिर बनाने के लिए दान की जरूरत थी। मन्दिर के नये ट्रस्टी को विचार आया कि सबसे पहले उस फैक्ट्री के मालिक से बात करके देखते हैं जो प्रतिदिन घंटी बजाने आता है। ट्रस्टी मालिक के पास गया। कुल इक्कीस लाख का खर्चा है, फैक्ट्री मालिक को बताया। आप कितना देंगे ?

फैक्ट्री के मालिक ने कोई सवाल किये बिना एक खाली चेक ट्रस्टी के हाथ में दे दिया और कहा पूरा इक्कीस लाख भर लो।

ट्रस्टी अवाक थे कांपते हाथों से चेक भरकर उस फैक्ट्री मालिक को वापस दिया। फैक्ट्री मालिक ने चेक को देखा और उस ट्रस्टी को दे दिया। ट्रस्टी ने चैक हाथ में लिया और कहा सिग्नेचर तो बाकि है। मालिक ने कहा मुझे सिग्नेचर करना नहीं आता है लाओ: अंगूठा मार देता हूँ, वही चलेगा…ये सुनकर ट्रस्टी चौक गया और कहा: साहेब तुमने अनपढ़ होकर भी इतनी तरक्की की, यदि पढ़े-लिखे होते तो कहाँ होते। तो वह सेठ हँसते हुए बोला: भाई, मैं पढ़ा लिखा होता तो बस मन्दिर में घण्टी ही बजा रहा होता।
कार्य कोई भी हो, परिस्थिति कैसी भी हो, हमें अपना काम पूरे मनोयोग से करना चाहिए।हमारी काबिलियत, हमारी भावनाओं पर निर्भर करती है। भावनायें शुद्ध होगी तो समय और सुंदर भविष्य जरूर हमारा साथ देगा।
कोई कार्य छोटा नही होता।कार्य कोई भी हो अगर आपको मिला है तो उसे पूरी ईमानदारी,सजगता, समर्पण के साथ करें पारलौकिक जीवन में भी अगर पूर्ण सुखी होना है तो स्वाध्याय के माध्यम से।

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