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किशनगंज : लगातार 62 दिनों से निराहार चल रहे सुरजमल दुगड़ की संथारा की साधना हुई संपन्न, आस पास के क्षेत्र के लोगो का अंतिम दर्शन के लिए लगा रहा तांता..

  • संथारा जैन समाज की वह प्रथा है, जिसमें मरणासन्न व्यक्ति अन्न-जल त्याग देता है।
  • जैन धर्म में एक वैज्ञानिक एवं मनोवैज्ञानिक विधि माना गया है।भगवान महावीर के उपदेशानुसार जन्म की तरह मृत्यु को भी उत्सव का रूप दिया जा सकता है।संथारा लेने वाला व्यक्ति भी खुश होकर अपनी अंतिम यात्रा को सफल कर सकेगा, यही सोचकर संथारा लिया जाता है।यह स्वेच्छा से देह त्यागने की परंपरा है।जैन धर्म में इसे जीवन की अंतिम साधना माना जाता है।
  • सांसारिक रूप में संपूर्णता की प्राप्ति के बाद मनुष्य जीवन में जाने-अनजाने में की गई गलतियों की क्षमा-याचना करते हुए तपस्या की प्रेरणा देने का एक मात्र माध्यम भी संथारा है।
  • संथारा ईश्वर की प्राप्ति का एक माध्यम है।कई संतों ने इसे अपनाया है।सांसारिक निवृत्ति का भी एक तरीका संथारा है।

किशनगंज/धर्मेन्द्र सिंह, लगातार 62 दिनों से निराहार चल रहे सुरजमल दुगड़ की संथारा की साधना बुधवार को संपन्न हो गयी।उनके देवलोकगमन के समाचार के बाद उनके निवास स्थान पर किशनगंज और आसपास के क्षेत्र के लोगो का अंतिम दर्शन के लिए तांता लगा रहा।आज विधिवत रूप से बैंकुठ के द्वारा शहर के मुख्य मार्गों से होती हुई अंतिम यात्रा निकलेगी।जिसमें देश भर से सैकड़ों तेरापंथ समाज के लोगों के शामिल होने की संभावना है।इसके अलावे नेपाल से भी तेरापंथ समाज के लोगों के आने की सूचना है।यहां बता दें कि 49 दिनों तक निराहार रहने के बाद सूरजमल दुगड़ ने पानी पीने का भी त्याग कर दिया था।नेपाल बिहार तेरापंथ सभाध्यक्ष डॉo राजकरण दफ्तरी लगातार उनकी सेवा में है।उन्होंने बताया कि अर्धशतक और चौविहार त्याग के बाद धीरे-धीरे उनकी शारीरिक शक्ति क्षीण होने लगी पर मनोबल वैसा ही दृढ़ रहा।डॉo दफ्तरी ने कहा कि परम पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री महाश्रमणजी का समय समय पर प्राप्त मंगल संदेश उनका और समाज के मनोबल को बढ़ाने वाला बना और अंततः आज दिन के 11:40 पर उन्होंने समाधि पूर्वक पंडित मरण कर आत्मा की धवलता और कर्म निर्जरा की यात्रा में एक लंबी छलांग लगा दी।देश भर से पिछले दिनों जैन साधु संतों और साध्वियों के साथ साथ समाज के लोगो के मंगलकामना संदेश सुरजमल दुगड़ के लिए लगातार आ रहे थे।सुरजमल दुगड़ के निराहार रहने और ‘संथारा’ साधना के परिसंपन्न होने के पूर्व  ही अपने अंदर के कषायों को, मोह ममता, भय, शौक, परिग्रह, विषय वासनाओं की पकड़ को मन की बहुत तरह की ग्रंथियों को विसर्जित करने की प्रक्रिया पूरी कर परिवार की आसक्ति, अधिकार की आसक्ति, जमीन जायदाद की आसक्ति छोड़ने की क्रिया सूरजमल दुगड़ कर चुके थे।इस दौरान सुरजमल दुगड़ ने अपने अंदर की आसक्तियों का लेखा जोखा और चीजों के अपने से अलग होने की भावना को प्रबल कर देवलोकगमन का मार्ग अपनाया।जैन धर्म में सदियों से समाधिपूर्वक मृत्यु प्राप्त करने की परंपरा रही है।जिसकी ‘संथारा’ के रूप में पहचान है।ऐसी मान्यता है कि सजगता से अपनी मृत्यु को देख पाना मनुष्य के लिए असंभव है।अपने शरीर से आत्मा को छूटते हुए देख पाना, जीवन की लालसा न होना, मृत्यु का डर न होना, न कोई कामना, न कोई लालसा, व्यक्ति, वस्तुस्थिति, अधिकार के भावों को पीछे छोड़ कर मृत्यु को सजगता से जीने की कला है।ऐसा सिर्फ ‘संथारे’ की साधना से हासिल किया जा सकता है।नेपाल-बिहार तेरापंथ सभाध्यक्ष डॉo राजकरण दफ्तरी के अनुसार सुरजमल दुगड़ के परिवार में कई सदस्यों ने पूर्व में भी इसी तरह आत्म कल्याण का मार्ग अपनाया था।देश भर में सुरजमल दुगड़ की इस अभूतपूर्व साधुत्व की चर्चा हो रही है।डॉo दफ्तरी ने बताया सुदूर क्षेत्र और जिले के आसपास के क्षेत्रों से रोजाना सैकड़ों की संख्या में लोग सुरजमल दुगड़ के दर्शन और आशीर्वाद लेने पहुंच रहे थे।आचार्य श्री महाश्रमणजी ने सुरजमल दुगड़ की इस तपस्या के दौरान संदेश में कहा कि अनशन करना जीवन की एक बड़ी उपलब्धि है।वह आत्मकल्याण का मार्ग है।सूरजमल दुगड़ ने अनशन स्वीकार किया है।वे खूब मनोबल के साथ परिणामों की उज्ज्वलता वर्धमान रखें।जप, स्वाध्याय आदि का प्रयोग चलता रहे।ध्यान केवल आत्मा में रहे।सभी परिवारजन व संबंधीजन उनके परिणामों की निर्मलता में  सहयोगी बने रहे।जैन धर्म में मृत्यु को नजदीक जानने पर लोग इस साधना को अपनाते रहे हैं।इस साधना को अपनाना हर किसी के लिए संभव नहीं, इंद्रियों को वश में कर मोह माया और निराहार रहकर साधना पूर्ण करने का अवसर चंद तपस्वी ही हासिल कर पाते हैं।बताते चले कि जैन धर्म में जब मनुष्य असाध्य रोगों से ग्रसित होता है या जब अंत समय नजदीक प्रतीत होता है तब मोहमाया और अन्न जल खाद्द त्याग कर मनुष्य संथारा या संलेखना की साधना करता है।संसार की सभी इच्छाओं का त्याग करना ही संथारा कहलाता है. जैन धर्म के लोगो का मानना है कि सुरजमल दुगड़ ने अभूतपूर्व उपलब्धि हासिल की है, अपने चाचा और अपने पूर्वजों की राह को अपनाते हुए सुरजमल दुगड़ ने इस अभूतपूर्व उपलब्धि को हासिल करने की प्रक्रिया 30 वर्ष पूर्व ही शुरू कर दी थी।

बैंकुठि’ अंतिम यात्रा में देश, विदेश के कई हिस्सों के लोग हुए शामिल

नेपाल बिहार बंगाल सहित देश भर से कई क्षेत्रों से तेरापंथ समाज के लोग इस अंतिम यात्रा में शामिल हुए।किशनगंज तेरापंथ समाज की महिलाएं भी इस अंतिम यात्रा में शामिल हुई।स्थानीय मारवाड़ी समाज सहित अन्य समाज के लोग भी बैंकुठि यात्रा में शामिल हुए।नेपाल बिहार तेरापंथ सभाध्यक्ष डॉo राजकरण दफ्तरी, महासभाध्यक्ष हंसराज बेताला, बिहार जदयू व्यावसायिक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष मूलचंद गोलछा, सहमंत्री नेमीचंद बैद, अणुव्रत महासमिति के महामंत्री भीकम चंद सुराणा, स्थानीय तेरापंथ सभाध्यक्ष पुखराज बागरेचा, तेयुप अध्यक्ष अमित दफ्तरी, महासभा सदस्य कन्हैयालाल बोथरा, कोषाध्यक्ष उज्जैन मालू, विराट नगर जीतेन्द्र गोलछा, गुलाबबाग विजय सिंग जी बैद, खुसकीबाग अमरचंद बैद, भट्टा बाजार नवरत्न जी दुगड़, भागलपुर अध्यक्ष रूपेश बैद, फारबिसगंज अध्यक्ष शांतिलाल जी, सिल्लीगुड़ी मन्ना लाल, बजरंग सेठिया, इस्लामपुर अध्यक्ष कन्हैयालाल जी बोथरा, दलखोला सुजानमल सेठिया, काठमांडू से दिनेश जी गोलछा, मोहनलाल जी कोठारी सहित नेपाल बिहार बंगाल क्षेत्र और देश के कई क्षेत्रों से सैकड़ों की संख्या में तेरापंथ समाज के लोग इस अभूतपूर्व बैंकुठि में शामिल हुए।

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