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किशनगंज : युवा संन्यासी का पुण्य स्मरण ,पढ़े स्वामी विवेकानंद जी के अनोमल सुविचार

किशनगंज/धर्मेन्द्र सिंह, देश आज स्वामी विवेकानंद जी की 158 वी जयंती मना रहा है।स्वामी जी के विचार युवाओं के लिए आज भी प्रासंगिक है ।स्वामी विवेकानंद भारतीयों को ऐसी शिक्षा ग्रहण करने के पैरोकार थे जो उनमें मजबूत आत्मविश्वास का भाव भरे।एक आत्मविश्वासी छात्र कभी भी किसी अन्य छात्र से स्वयं को कम नहीं समझेगा उसे पता होगा कि उसमें बहुत संभावनाएं हैं और उचित जागरूकता एवं प्रयास से वह अपने भविष्य को गढ़ सकता है।राष्ट्रवाद पर स्वामी विवेकानंद के विचार गहन आध्यात्मिक थे, उनका मानना था कि राष्ट्रवाद लोगों का आध्यात्मिक एकीकरण और आत्मा की आध्यात्मिक जागृति है।उन्होंने देश में प्रचलित विविधता को पहचान कर सुझाव दिया कि भारतीय राष्ट्रवाद पश्चिम की तरह पृथकतावादी नहीं हो सकता। वह मानते थे कि भारतीय लोग बहुत अधिक धार्मिक प्रकृति के हैं और इससे एकजुट होने की शक्ति प्राप्त की जा सकती है।उन्होंने करुणा सेवा और त्याग को राष्ट्रीय आदर्शों के रूप में मान्यता दी। स्वामी विवेकानंद के लिए राष्ट्रवाद सार्वभौमिकता और मानवता पर आधारित था उनका मानना था कि प्रत्येक देश का एक ऐसा प्रभावी सिद्धांत होता है जो उस देश के जीवन में समग्र रूप से परिलक्षित होता है।भारत के परिपेक्ष में या धर्म है।धर्मनिरपेक्षता पर आधारित पश्चिमी राष्ट्रवाद के विपरीत स्वामी विवेकानंद के राष्ट्रवाद का आधार धर्म भारतीय आध्यात्मिकता और नैतिकता थी।स्वामी जी ने मानवतावाद और सार्वभौमिकता के आदर्शों को भी राष्ट्रवाद के आधार के रूप में स्वीकार किया।इन आदर्शों ने लोगों को बंधनों और दुखों से मुक्त होने के लिए पथ प्रदर्शक का काम किया है।आधुनिक राष्ट्रवाद की विभाजनकारी शक्तियों के विपरीत स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण सार्वभौमिक पहुंच और आध्यात्मिक पहचान की एकता पर केंद्रित था।जो इस बात पर बल देता है कि किसी एक देश का दूसरे देश पर अधिग्रहण करने का कोई आध्यात्मिक या नैतिक औचित्य नहीं हो सकता है।स्वामी विवेकानन्द के व्याख्यान।स्वामी विवेकानन्द के वचन। स्वामी विवेकानन्द के सुविचार

उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये ।
-स्वामी विवेकानन्द

जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो।दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो।सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो–वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।
स्वामी विवेकानन्द

तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ।जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।

स्वामी विवेकानन्द

ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो।मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है।जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं।इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे।तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।
स्वामी विवेकानन्द

ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।
स्वामी विवेकानन्द

मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।
स्वामी विवेकानन्द

जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा।वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द

जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं।इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।
स्वामी विवेकानन्द

आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है।उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।
स्वामी विवेकानन्द

मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है ? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते।सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है।इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द

हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।
स्वामी विवेकानन्द

मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी।यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय।एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो।ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा।जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।
स्वामी विवेकानन्द

पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो।प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।
स्वामी विवेकानन्द

सभी मरेंगे-साधु या असाधु, धनी या दरिद्र-सभी मरेंगे।चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा।अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ।भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।
स्वामी विवेकानन्द

संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम।सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है।लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें।आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है।संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।
स्वामी विवेकानन्द

हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं।हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो।ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं।जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन ! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं।जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हे दिखाता हूँ ! (वि.स. ६/८)-स्वामी विवेकानन्द

बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे।छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है ! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे।अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है।किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो—यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है।डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं—इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे।भय किस बात का ? किसका भय ? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड-४पन्ना-३१५) (४/३१५) -स्वामी विवेकानन्द

तुमने बहुत बहादुरी की है।शाबाश ! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे।जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर–गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय।कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है।जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा।डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो ‘नहीं’ हो जाना पडेगा।खूब शाबाश! छान डालो–सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो–चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते-स्वामी विवेकानन्द

तमाम संसा हिल उठता।क्या करूँ धीरे–धीरे अग्रसर होना पड रहा है।तूफ़ान मचा दो तूफ़ान ! (वि.स. ४/३८७) स्वामी विवेकानन्द

किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ: जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है ? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना।सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स.४/३२०)-स्वामी विवेकानन्द

लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो। (वि.स.६/८८)-स्वामी विवेकानन्द

श्रेयांसि बहुविघ्नानि अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं।— प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं।दुनीया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह ! गुरु की फतह ! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है।मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले !..बडे–बडे बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले ? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है: अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।)…धीरे –धीरे सब होगा।-स्वामी विवेकानन्द

वीरता से आगे बढो।एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो।स्थिर रहो।स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो।आज्ञा-पालन करो।सत्य, मनुष्य—जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो—व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। (वि.स. ४/३९५)-स्वामी विवेकानन्द

इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है—बडे आदमी वो हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं-यही सदा से होता आया है—एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो-मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ।)-स्वामी विवेकानन्द

मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें।तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा।आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना—इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता। (वि.स.६/३५२)-स्वामी विवेकानन्द

मन और मुँह को एक करके भावों को जीवन में कार्यान्वित करना होगा।इसी को श्री रामकृष्ण कहा करते थे, “भाव के घर में किसी प्रकार की चोरी न होने पाये।”सब विषओं में व्यवहारिक बनना होगा।लोगों या समाज की बातों पर ध्यान न देकर वे एकाग्र मन से अपना कार्य करते रहेंगे क्या तुने नहीं सुना, कबीरदास के दोहे में है- “हाथी चले बाजार में, कुत्ता भोंके हजार साधुन को दुर्भाव नहिं, जो निन्दे संसार” ऐसे ही चलना है।दुनिया के लोगों की बातों पर ध्यान नहीं देना होगा।उनकी भली बुरी बातों को सुनने से जीवन भर कोई किसी प्रकार का महत् कार्य नहीं कर सकता। (वि.स.३/३८१)-स्वामी विवेकानन्द

अन्त में प्रेम की ही विजय होती है।हैरान होने से काम नहीं चलेगा- ठहरो- धैर्य धारण करने पर सफलता अवश्यम्भावी है- तुमसे कहता हूँ देखना-कोई बाहरी अनुष्ठानपध्दति आवश्यक न हो- बहुत्व में एकत्व सार्वजनिन भाव में किसी तरह की बाधा न हो।यदि आवश्यक हो तो “सार्वजनीनता” के भाव की रक्षा के लिए सब कुछ छोडना होगा।मैं मरूँ चाहे बचूँ, देश जाऊँ या न जाऊँ, तुम लोग अच्छी तरह याद रखना कि, सार्वजनीनता- हम लोग केवल इसी भाव का प्रचार नहीं करते कि, “दुसरों के धर्म का द्वेष न करना”: नहीं, हम सब लोग सब धर्मों को सत्य समझते हैं और उन्का ग्रहण भी पूर्ण रूप से करते हैं हम इसका प्रचार भी करते हैं और इसे कार्य में परिणत कर दिखाते हैं सावधान रहना, दूसरे के अत्यन्त छोटे अधिकार में भी हस्तक्षेप न करना–इसी भँवर में बडे-बडे जहाज डूब जाते हैं पुरी भक्ति, परन्तु कट्टरता छोडकर, दिखानी होगी, याद रखना उन्की कृपा से सब ठीक हो जायेगा।-स्वामी विवेकानन्द

जिस तरह हो, इसके लिए हमें चाहे जितना कष्ट उठाना पडे- चाहे कितना ही त्याग करना पडे यह भाव (भयानक ईर्ष्या) हमारे भीतर न घुसने पाये- हम दस ही क्यों न हों-दो क्यों न रहें-परवाह नहीं परन्तु जितने हों सम्पूर्ण शुध्दचरित्र हों।-स्वामी विवेकानन्द

नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुध्द रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो—प्रणों के लिए भी कभी न डरो।कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते—यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते।प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो। बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं।इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है।कायरता, पाप्, असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।(वि.स.१/३५०)-स्वामी विवेकानन्द

शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्य शाली बनो।कर्म, निरन्तर कर्म: संघर्ष, निरन्तर संघर्ष ! अलमिति।पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो—सारा धर्म इसी में है। (वि.स.१/३७९)-स्वामी विवेकानन्द

क्या संस्कृत पढ रहे हो ? कितनी प्रगति होई है ? आशा है कि प्रथम भाग तो अवश्य ही समाप्त कर चुके होगे।विशेष परिश्रम के साथ संस्कृत सीखो। (वि.स.१/३७९-८०)-स्वामी विवेकानन्द

शत्रु को पराजित करने के लिए ढाल तथा तलवार की आवश्यकता होती है।इसलिए अंग्रेज़ी और संस्कृत का अध्ययन मन लगाकर करो। (वि.स.४/३१९)-स्वामी विवेकानन्द

बच्चों, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं।सच्चा बनना तथा सच्चा बर्ताव करना, इसमें ही समग्र धर्म निहित है।जो केवल प्रभु-प्रभु की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम पिता के इच्छानुसार कार्य करता है वही धार्मिक है।यदि कभी कभी तुमको संसार का थोडा-बहुत धक्का भी खाना पडे, तो उससे विचलित न होना, मुहूर्त भर में वह दूर हो जायगा तथा सारी स्थिति पुनः ठीक हो जायगी। (वि.स.१/३८०)-स्वामी विवेकानन्द

बालकों, दृढ बने रहो, मेरी सन्तानों में से कोई भी कायर न बने। तुम लोगों में जो सबसे अधिक साहसी है–सदा उसीका साथ करो। बिना विघ्न–बाधाओं के क्या कभी कोई महान कार्य हो सकता है ? समय, धैर्य तथा अदम्य इच्छा-शक्ति से ही कार्य हुआ करता है। मैं तुम लोगों को ऐसी बहुत सी बातें बतलाता, जिससे तुम्हारे हृदय उछल पडते, किन्तु मैं ऐसा नहीं करूँगा।मैं तो लोहे के सदृश दृढ इच्छा-शक्ति सम्पन्न हृदय चाहता हूँ, जो कभी कम्पित न हो।दृढता के साथ लगे रहो, प्रभु तुम्हें आशीर्वाद दे। सदा शुभकामनाओं के साथ तुम्हारा विवेकानन्द। (वि.स.४/३४०)-स्वामी विवेकानन्द

जब तक जीना, तब तक सीखना’—अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है। (वि.स.१/३८६)-स्वामी विवेकानन्द

जिस प्रकार स्वर्ग में, उसी प्रकार इस नश्वर जगत में भी तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो, क्योंकि अनन्त काल के लिए जगत में तुम्हारी ही महिमा घोषित हो रही है एवं सब कुछ तुम्हारा ही राज्य है। (वि.स.१/३८७)-स्वामी विवेकानन्द

पवित्रता, दृढता तथा उद्यम-ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ। (वि.स.४/३४७)-स्वामी विवेकानन्द

भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है।पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है-और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं।हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है। (वि.स.४/३५१)-स्वामी विवेकानन्द

पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं। (वि.स.४/३५१)-स्वामी विवेकानन्द

साहसी होकर काम करो।धीरज और स्थिरता से काम करना— यही एक मार्ग है।आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म।जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे—माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे। (वि.स.४/३५६)-स्वामी विवेकानन्द

बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता।किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है। (वि.स.४/३३९)-स्वामी विवेकानन्द

महाशक्ति का तुममें संचार होगा—कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ। (वि.स.४/३६१)-स्वामी विवेकानन्द

बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही। (वि.स.४/३६२)-स्वामी विवेकानन्द

धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो।आपस में न लडो! रुपये–पैसे के व्यवहार में शुध्द भाव रखो।हम अभी महान कार्य करेंगे।जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हे सफलता मिलेगी। (वि.स.४/३६८)-स्वामी विवेकानन्द

जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः। (वि.स.४/२७६)-स्वामी विवेकानन्द

ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो—संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। (वि.स.४/२८०)-स्वामी विवेकानन्द

पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो।एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी।आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है।हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।(वि.स.४/२८४)-स्वामी विवेकानन्द

यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा।यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले ‘अहं’ ही नाश कर डालो। (वि.स.४/२८५)-स्वामी विवेकानन्द

पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना।अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो उसीसे भविष्य में कलह का बिजारोपण होगा। (वि.स.४/३१२)-स्वामी विवेकानन्द

यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो।इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। (वि.स.४/३१३)-स्वामी विवेकानन्द

गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ।सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है। (वि.स.४/३१८)-स्वामी विवेकानन्द 

बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी—तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता।मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ।हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो। (वि.स.४/३३२)
-स्वामी विवेकानन्द

किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो।जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो।एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है। (वि.स.४/३१५)-स्वामी विवेकानन्द

किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है ? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना।सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स. ४/३२०)-स्वामी विवेकानन्द

क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुध्दिमानी नहीं है।बुध्दिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खडा होकर कार्य करना चहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। (वि.स. ४/३२८)-स्वामी विवेकानन्द

बच्चे, जब तक हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास–ये तीनों वस्तुएम रहेंगी–तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता।मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो। (वि.स. ४/३३२)-स्वामी विवेकानन्द

आओ हम नाम, यश और दूसरों पर शासन करने की इच्छा से रहित होकर काम करें। काम, क्रोध एंव लोभ—इस त्रिविध बन्धन से हम मुक्त हो जायें और फिर सत्य हमारे साथ रहेगा। (वि.स. ४/३३८)-स्वामी विवेकानन्द

न टालो, न ढूँढों—भगवान अपनी इच्छानुसार जो कुछ भेहे, उसके लिए प्रतिक्षा करते रहो, यही मेरा मूलमंत्र है। (वि.स. ४/३४८)-स्वामी विवेकानन्द

शक्ति और विशवास के साथ लगे रहो।सत्यनिष्ठा, पवित्र और निर्मल रहो, तथा आपस में न लडो। हमारी जाति का रोग ईर्ष्या ही है। (वि.स. ४/३६९)-स्वामी विवेकानन्द

एक ही आदमी मेरा अनुसरण करे, किन्तु उसे मृत्युपर्यन्त सत्य और विश्वासी होना होगा।मैं सफलता और असफलता की चिन्ता नहीं करता। मैं अपने आन्दोलन को पवित्र रखूँगा, भले ही मेरे साथ कोई न हो।कपटी कार्यों से सामना पडने पर मेरा धैर्य समाप्त हो जाता है।यही संसार है कि जिन्हें तुम सबसे अधिक प्यार और सहायता करो, वे ही तुम्हे धोखा देंगे। (वि.स. ४/३७७)-स्वामी विवेकानन्द

मेरा आदर्श अवश्य ही थोडे से शब्दों में कहा जा सकता है–मनुष्य जाति को उसके दिव्य स्वरूप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। (वि.स. ४/४०७)-स्वामी विवेकानन्द

जब कभी मैं किसी व्यक्ति को उस उपदेशवाणी (श्री रामकृष्ण के वाणी) के बीच पूर्ण रूप से निमग्न पाता हूँ, जो भविष्य में संसार में शान्ति की वर्षा करने वाली है, तो मेरा हृदय आनन्द से उछलने लगता है।ऐसे समय मैं पागल नहीं हो जाता हूँ, यही आश्चर्य की बात है। (वि.स. १/३३४, ६ फरवरी, १८८९)-स्वामी विवेकानन्द

‘बसन्त की तरह लोग का हित करते हुए’–यहि मेरा धर्म है।“मुझे मुक्ति और भक्ति की चाह नहीं।लाखों नरकों में जाना मुझे स्वीकार है, बसन्तवल्लोकहितं चरन्तः-यही मेरा धर्म है। (वि.स.४/३२८)-स्वामी विवेकानन्द

हर काम को तीन अवस्थाओं में से गुज़रना होता है—उपहास, विरोध और स्वीकृति।जो मनुष्य अपने समय से आगे विचार करता है, लोग उसे निश्चय ही ग़लत समझते है।इसलिए विरोध और अत्याचार हम सहर्ष स्वीकार करते हैं; परन्तु मुझे दृढ और पवित्र होना चाहिए और भगवान् में अपरिमित विश्वास रखना चाहिए, तब ये सब लुप्त हो जायेंगे। (वि.स.४/३३०)-स्वामी विवेकानन्द

यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है, तो छुतही बिमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं।परन्तु जब उसके सीर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है–वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो–तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुँच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं, जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे ! इससे अधिक विड्म्बना की बात क्या हो सकता है ? आइए, देखिए तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गज़ब कर रहें हैं।ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या मे ईसाई बना रहे हैं।…वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है ! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूँ ? हें भगवान, कब एक मनुष्य दूसरे से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेगा। (वि.स.१/३८५)-स्वामी विवेकानन्द

प्रायः देखने में आता है कि अच्छे से अच्छे लोगों पर कष्ट और कठिनाइयाँ आ पडती हैं।इसका समाधान न भी हो सके, फिर भी मुझे जीवन में ऐसा अनुभव हुआ है कि जगत में कोई ऐसी वस्तु नहीं, जो मूल रूप में भली न हो।ऊपरी लहरें चाहे जैसी हों, परन्तु वस्तु मात्र के अन्तरकाल में प्रेम एवं कल्याण का अनन्त भण्डार है। जब तक हम उस अन्तराल तक नहीं पहुँचते, तभी तक हमें कष्ट मिलता है।एक बार उस शान्ति-मण्डल में प्रवेश करने पर फिर चाहे आँधी और तूफान के जितने तुमुल झकोरे आयें, वह मकान, जो सदियों की पुरानि चट्टान पर बना है, हिल नहीं सकता। (वि.स.१/३८९)-स्वामी विवेकानन्द

यही दुनिया है! यदि तुम किसी का उपकार करो, तो लोग उसे कोई महत्व नहीं देंगे, किन्तु ज्यों ही तुम उस कार्य को वन्द कर दो, वे तुरन्त (ईश्वर न करे) तुम्हे बदमाश प्रमाणित करने में नहीं हिचकिचायेंगे। मेरे जैसे भावुक व्यक्ति अपने सगे–स्नेहियों द्वरा सदा ठगे जाते हैं।-स्वामी विवेकानन्द

मेरी केवल यह इच्छा है कि प्रतिवर्ष यथेष्ठ संख्या में हमारे नवयुवकों को चीन जापान में आना चाहिए।जापानी लोगों के लिए आज भारतवर्ष उच्च और श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वप्नराज्य है।और तुम लोग क्या कर रहे हो ?…जीवन भर केवल बेकार बातें किया करते हो, व्यर्थ बकवाद करने वालो, तुम लोग क्या हो ? आओ, इन लोगों को देखो और उसके बाद जाकर लज्जा से मुँह छिपा लो।सठियाई बुध्दिवालो, तुम्हारी तो देश से बाहर निकलते ही जाति चली जायगी! अपनी खोपडी में वर्षों के अन्धविश्वास का निरन्तर वृध्दिगत कूडा-कर्कट भरे बैठे, सैकडों वर्षों से केवल आहार की छुआछूत के विवाद में ही अपनी सारी शक्ति नष्ट करनेवाले, युगों के सामाजिक अत्याचार से अपनी सारी मानवता का गला घोटने वाले, भला बताओ तो सही, तुम कौन हो? और तुम इस समय कर ही क्या रहे हो ?…किताबें हाथ में लिए तुम केवल समुद्र के किनारे फिर रहे हो। तीस रुपये की मुंशी–गीरी के लिए अथवा बहुत हुआ, तो एक वकील बनने के लिए जी–जान से तडप रहे हो—यही तो भारतवर्ष के नवयुवकों की सबसे बडी महत्वाकांक्षा है।तिस पर इन विद्यार्थियों के भी झुण्ड के झुण्द बच्चे पैदा हो जाते हैं, जो भूख से तडपते हुए उन्हें घेरकर ‘रोटी दो, रोटी दो‘ चिल्लाते रहते हैं।क्या समुद्र में इतना पानी भी न रहा कि तुम उसमें विश्वविद्यालय के डिप्लोमा, गाउन और पुस्तकों के समेत डूब मरो ? आओ, मनुष्य बनो ! उन पाखण्डी पुरोहितों को, जो सदैव उन्नत्ति के मार्ग में बाधक होते हैं, ठोकरें मारकर निकाल दो, क्योंकि उनका सुधार कभी न होगा, उन्के हृदय कभी विशाल न होंगे।उनकी उत्पत्ति तो सैकडों वर्षों के अन्धविश्वासों और अत्याचारों के फलस्वरूप हुई है। पहले पुरोहिती पाखंड को ज़ड–मूल से निकाल फेंको।आओ, मनुष्य बनो।कूपमंडूकता छोडो और बाहर दृष्टि डालो।देखो, अन्य देश किस तरह आगे बढ रहे हैं।क्या तुम्हे मनुष्य से प्रेम है ? यदि ‘हाँ’ तो आओ, हम लोग उच्चता और उन्नति के मार्ग में प्रयत्नशील हों।पीछे मुडकर मत देखो; अत्यन्त निकट और प्रिय सम्बन्धी रोते हों, तो रोने दो, पिछे देखो ही मत।केवल आगे बढते जाओ। भारतमाता कम से कम एक हज़ार युवकों का बलिदान चाहती है— मस्तिष्क–वाले युवकों का, पशुओं का नहीं।परमात्मा ने तुम्हारी इस निश्चेष्ट सभ्यता को तोडने के लिए ही अंग्रेज़ी राज्य को भारत में भेजा है…(वि.स.१/३९८-९९)-स्वामी विवेकानन्द

न संख्या-शक्ति, न धन, न पाण्डित्य, न वाक चातुर्य, कुछ भी नहीं, बल्कि पवित्रता, शुध्द जीवन, एक शब्द में अनुभूति, आत्म-साक्षात्कार को विजय मिलेगी ! प्रत्येक देश में सिंह जैसी शक्तिमान दस-बारह आत्माएँ होने दो, जिन्होने अपने बन्धन तोड डाले हैं, जिन्होने अनन्त का स्पर्श कर लिया है, जिन्का चित्र ब्रह्मनुसन्धान में लीन है, जो न धन की चिन्ता करते हैं, न बल की, न नाम की और ये व्यक्ति ही संसार को हिला डालने के लिए पर्याप्त होंगे। (वि.स.४/३३६)-स्वामी विवेकानन्द

यही रहस्य है।योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, ”जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है।वह प्रमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है।मुझे इसीका प्रचार करना है।जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्य्क्ष आचरण नहीं करता। (वि.स.४/३३७)-स्वामी विवेकानन्द

एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है—वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है।और जो सत्यद्र्ष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते।वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते ! उन्हे नाम, यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो।और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे।हम आमरण एवं जन्म-जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें।दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, देवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया। (वि.स. ४/३३७)-स्वामी विवेकानन्द

जो सबका दास होता है, वही उन्का सच्चा स्वामी होता है।जिसके प्रेम में ऊँच–नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता।जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच–नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है। (वि.स. ४/४०३)-स्वामी विवेकानन्द

वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है।जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे।परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम् ! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है।जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं।अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो। (वि.स. ४/३८७)-स्वामी विवेकानन्द

अकेले रहो, अकेले रहो।जो अकेला रहता है, उसका किसीसे विरोध नहीं होता, वह किसीकी शान्ति भंग नहीं करता, न दूसरा कोई उसकी शान्ति भंग करता है। (वि.स. ४/३८१)-स्वामी विवेकानन्द

मेरी दृढ धारणा है कि तुममें अन्धविश्वास नहीं है।तुममें वह शक्ति विद्यमान है, जो संसार को हिला सकती है, धीरे–धीरे और भी अन्य लोग आयेंगे।‘साहसी’ शब्द और उससे अधिक ‘साहसी’ कर्मों की हमें आवश्यकता है।उठो ! उठो ! संसार दुःख से जल रहा है।क्या तुम सो सकते हो? हम बार–बार पुकारें, जब तक सोते हुए देवता न जाग उठें, जब तक अन्तर्यामी देव उस पुकार का उत्तर न दें। जीवन में और क्या है? इससे महान कर्म क्या है ? (वि.स. ४/४०८)-स्वामी विवेकानन्द

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