पहाड़ों के बीच से गुजरती उम्मीदों की ट्रेन : कश्मीर की रेल क्रांति
त्रिलोकी नाथ प्रसाद/जून के एक खुशगवार दिन, गेंदे के फूलों और राष्ट्रीय गौरव से लदी हुई वंदे भारत एक्सप्रेस ने श्री माता वैष्णो देवी कटरा से श्रीनगर तक अपनी पहली यात्रा शुरू की। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी द्वारा झंडी दिखाए जाने के बाद, यह क्षण एक हाई-स्पीड ट्रेन के शुभारंभ से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण बन गया था। यह एक सदी पुराने सपने की परिणति थी – जो चट्टानी इरादों, दूरदर्शिता और दृढ़ संकल्प से बुनी गयी थी। और वह संकल्प था – कश्मीर का शेष भारत के साथ रेल एकीकरण। इस ट्रेन में यात्रा कर रहे लोगों के खुशनुमा चेहरों से यह साफ़ दृष्टिगोचर हो रहा है।
अल्ट्रा आधुनिक यात्रा अनुभव के साथ कश्मीर जाने वाली यह ट्रेन हमारे इंजीनियरों के परिश्रम की ठोस नींव पर आधारित है। यात्रा के समय में कमी लाते हुए, यह हाई स्पीड वंदे भारत ट्रेनें दिन में दो बार, सप्ताह में छह बार दोनों तरफ़ से चल रही हैं। ये न केवल घाटी में स्थानीय आर्थिक विकास के लिए आवश्यक प्रोत्साहन दे रही हैं, बल्कि देश भर के पर्यटकों के लिए भी वरदान साबित हो रही हैं। अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ तीन घंटे के कम समय की इस मनमोहक यात्रा ने वास्तव में पर्वतीय कश्मीर को सभी मौसमों में शेष भारत के साथ एकीकृत कर दिया है। सड़क मार्ग से इस यात्रा में छह से सात घंटे लग जाते हैं।
दशकों से, कश्मीर की कहानी संघर्ष और दूरी के नजरिये से सुनी जाती रही है। यह देखना अब उत्साहजनक है कि यह इबारत बुनियादी ढांचे – पुल, सुरंग और पहाड़ों के बीच से गुजरती रेल लाइनों की भाषा में फिर से लिखी जा रही है। केंद्र में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के शासन के 11 साल पूरे होने की पूर्व संध्या पर, विशेष ट्रेनें और कनेक्टिंग लिंक कश्मीर में स्थानीय लोगों की नियति बदलने के लिए कमर कसकर तैयार हैं।
राष्ट्र की सेवा के अपने 172 साल के इतिहास में, भारतीय रेल ने कई महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। रेल से जुड़ी, पुरुषों और महिलाओं की समर्पित पीढ़ियों ने संपर्क और परिवहन को रोजमर्रा की हकीकत बनाने के लिए कड़ी मेहनत की है। लेकिन यह एक विख्यात भारतीय विज्ञापन की एक मशहूर पंक्ति को चरितार्थ भी करती है: भारतीय रेल सिर्फ पटरियां नहीं बनाती – यह राष्ट्रीय एकता का ताना-बाना भी बुनती है!
अलगाव से एकीकरण तक
ऐतिहासिक रूप से देखें तो कश्मीर का अलगाव केवल रूपक भर नहीं था, बल्कि यह भौगोलिक और कष्टदायी रूप से वास्तविक भी था। हिमालय की ऊंचाइयों पर बसा और अक्सर हफ्तों तक बर्फ से ढका रहने वाला यह क्षेत्र न केवल पहुंच में बल्कि अनुभव में भी दुर्गम था। सड़कें खतरनाक थीं, हवाई यात्रा सीमित थी और लंबे समय से किया जा रहा पूर्ण रेल संपर्क का वायदा एक मृगतृष्णा बनकर रह गया था।
कश्मीर रेल लिंक के लिए ब्रिटिश काल का प्रस्ताव दशकों तक ड्राइंग बोर्ड पर सीमित रहा, जो जटिल भू-राजनीतिक चुनौतियों से बाधित था। विचार-विमर्शों, व्यवहार्यता अध्ययनों, तकनीकी मूल्यांकनों और घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों के साथ परामर्शों के अनगिनत दौर के बाद, उधमपुर-श्रीनगर-बारामूला रेल लिंक (यूएसबीआरएल) को आधिकारिक तौर पर 1994 में मंजूरी दी गई थी। उत्तरी और दक्षिणी अनुभागों में जहां निरंतर प्रगति होती रही और एक दशक के भीतर वे प्रभावी रूप से पूरे भी हो गए, कटरा से बनिहाल तक के केंद्रीय अनुभाग में हिमालय से जुड़ी कई इंजीनियरिंग और सुरक्षा चुनौतियां सामने आईं।
वर्षों तक पहाड़ों की खाई से गुजरती यह रेल लाइनें दो अलग-अलग खंडों के रूप में बाधित रहीं। लेकिन यह खाई केवल भौतिक भूभाग से ही जुड़ी नहीं थी, बल्कि यह किसी और चीज की भी प्रतीक थी। यूएसबीआरएल परियोजना को पूरा करने का अंतिम ठोस प्रयास तब हुआ जब सरकार ने इसे राष्ट्रीय प्राथमिकता घोषित किया। दृढ़ संकल्प और अत्याधुनिक तकनीक के समन्वय से काम करने के बाद आखिर इस परियोजना ने वास्तव में आकार ले ही लिया। रेल मंत्री श्री अश्विनी वैष्णव ने बिलकुल सटीक टिप्पणी की; यह एक परिवहन पहल भर नहीं थी, बल्कि राष्ट्र निर्माण का एक प्रयास थी।
जहां आसमान पर छाया है इस्पात
यूएसबीआरएल परियोजना शायद आज़ादी के बाद की सबसे महत्वाकांक्षी रेल पहल है। उधमपुर और बारामूला के बीच 272 किलोमीटर का यह हिस्सा 40 सुरंगों और 900 से ज़्यादा पुलों से होकर गुज़रता है। और इस सबके बीच में कीर्तिमान स्थापित कर रहा है – चिनाब ब्रिज – जो नदी के तल से 359 मीटर ऊपर विश्व का सबसे ऊंचा रेलवे ब्रिज है। इंजीनियरिंग का यह चमत्कार 260 किलोमीटर प्रति घंटे की हवा की रफ़्तार और भूकंपीय क्षेत्र-V के झटकों को झेलने में सक्षम है। इसके बगल में अंजी खाद ब्रिज है, जो भारत का पहला केबल-स्टेड रेलवे ब्रिज है। यह घाटी में असमान रूप से फैला हुआ है, सिंगल पायलन इसका आधार है और यह 96 केबलों द्वारा समर्थित है।
पीर पंजाल रेंज से गुजरने वाली 11 किलोमीटर लंबी टी-80 (बनिहाल – काजीगुंड) सुरंग सहित अन्य सुरंगों का निर्माण डायनामाइट और इन्सानी क्षमता के जरिये चट्टान को तराश कर किया गया है।
भौतिक सर्वेक्षण घोड़े पर सवार होकर किए गए, जबकि ड्रोन और सैटेलाइट इमेजिंग ने हवाई सर्वेक्षण में सहायता प्रदान की। श्रमिकों ने हाड़ कंपकपाती सर्दियों, आकस्मिक भूस्खलनों और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादी हमलों के मंडराते खतरे के बावजूद अनथक काम किया।
आज, 190 किलोमीटर से अधिक सुरंगों और हजारों टन स्टील लगने के बाद, यह लाइन पूरी तरह से तैयार है। यह एक ऐसी उपलब्धि है, जो सटीक इंजीनियरिंग को विजन की एक निश्चित साहसिकता के साथ जोड़ती है। यह घाटी को देश के बाकी हिस्सों से विशिष्ट प्रकार से जोड़ती है, जिसका एक महान सांकेतिक महत्व है।
उम्मीद से भरी ट्रेन
कई मायनों में, वंदे भारत एक्सप्रेस सिर्फ़ एक ट्रेन नहीं है – यह एक रूपक है। यह घास के मैदानों और घाटियों से चुपचाप गुज़रती है, वास्तविक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह की दूरियों को पाटती है और यह ऐलान करती है कि कश्मीर अब दूर नहीं रहा!
इसने श्रीनगर और कटरा के बीच यात्रा के समय को लगभग छह घंटे से घटाकर सिर्फ़ तीन घंटे कर दिया है। जो कभी भूस्खलन, खतरनाक मोड़ और अप्रत्याशित मौसम के बीच एक दुर्गम सड़क यात्रा थी, वह अब सुरंगों और पुलों के माध्यम से एक अविश्वसनीय सुगम यात्रा बन गयी है।
यह न केवल शहरों को, बल्कि जीवनों को भी जोड़ती है। दूर-दराज के गांवों के बच्चे अब जम्मू और दिल्ली के विश्वविद्यालयों के बारे में बात कर रहे हैं। स्थानीय कारीगर, सेब उत्पादक और कालीन बुनकर अब अपने ताज़ा उत्पादों को त्वरित गति से घाटी से परे दूरदराज के बाज़ारों तक पहुंचते हुए देख रहे हैं।
श्रीनगर में एक युवा दुकानदार ने कहा, “जहां पहले चेकपॉइंट होते थे और उससे खासी देरी होती थी, वहां अब ट्रेन की आवाज़ गूंज रही है। ऐसा लगता है कि अब हम देश के बाकी हिस्सों के आने का इंतज़ार नहीं कर रहे हैं – हम उसके साथ चल रहे हैं।”
एक नई यात्रा, विकास प्रक्रिया अभी भी जारी
इसका मतलब यह बताना नहीं है कि एक ट्रेन कश्मीर की जटिल समस्याओं का समाधान कर देगी। बुनियादी ढांचा इतिहास को मिटा नहीं सकता या घावों को तुरंत ठीक नहीं कर सकता – सुरक्षा संबंधी चिंताओं पर अभी भी ध्यान देने की आवश्यकता होगी। लेकिन यह – शाब्दिक और प्रतीकात्मक – दोनों तरह से दरवाजे खोल सकता है और आर्थिक, सामाजिक और अंततः भावनात्मक एकीकरण की नींव रख सकता है।
औपनिवेशिक कार्यालयों में ड्राइंग बोर्ड पर कभी एक सपने के रूप में जो आरंभ हुआ, वह हिमालय की चट्टानों के साथ मिलकर और स्टील से बनी रेलगाड़ियों के रूप में आज एक वास्तविकता बन गया है। कश्मीर तक रेल लाइन एक ऐसे देश की कहानी है जिसने भूभाग, आतंक या समय की सीमा की परवाह नहीं की।
पहाड़ों की छाया से लेकर सूरज की रोशनी से जगमगाते स्टेशनों तक, अब एक नई यात्रा शुरू हो गई है!
जया वर्मा सिन्हा
पूर्व सीईओ और रेलवे बोर्ड की अध्यक्ष
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एमजी/केसी/एसकेजे/एसके
(Steeling through the Mountains- Kashmir’s Rail Revolution Release ID: )