*बुद्ध पूर्णिमा पर बिहार संग्रहालय में एक दिवसीय संगोष्ठी का सफल आयोजन*
*युद्ध नहीं बुद्ध वर्तमान की जरूरत*

त्रिलोकी नाथ प्रसाद/पटना। बिहार सरकार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग, अंतर्गत संग्रहालय निदेशालय द्वारा आज बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर बिहार संग्रहालय, पटना में एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया।
कार्यक्रम का उद्घाटन विभागीय पदाधिकारियों एवं विशिष्ट अतिथियों की उपस्थिति में दीप प्रज्वलन द्वारा किया गया। इस अवसर पर श्री अंजनी कुमार सिंह, महानिदेशक, बिहार संग्रहालय तथा श्री प्रणव कुमार, सचिव, कला, संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार ने कार्यक्रम को संबोधित किया।
श्रीमती रचना पाटिल, निदेशक, संग्रहालय निदेशालय ने स्वागत भाषण दिया। मंच से उन्होंने अतिथियों को धन्यवाद देते हुए कहा कि आज की परिचर्चा बेहद ज्ञानवर्धक और रुचपूर्व रहेगी। यहाँ उपस्थित सभागार में तमाम सुनने वाले काफ़ी लाभान्वित होंगे।
इसके बाद बिहार म्यूजियम के महानिदेशक अंजनी कुमार सिंह ने मंच से सभागार में उपस्थित तमाम विद्वतजन और छात्रगण को संबोधित करते हुए कहा कि भगवान बुद्ध के द्वारा दिया गया ज्ञान अत्यंत लाभकारी और प्रासंगिक है। यही वजह है कि उनके दिए गए ज्ञान को फैलाने के लिए बिहार में कई बौद्ध स्तूपों का निर्माण हुआ है। बिहार के वैशाली में भगवान बुद्ध के ज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए भव्य म्यूजियम बन रहा है। भगवान बुद्ध ने जो ज्ञान आमजनों को दिया उसमें सबसे बड़ा ज्ञान लचीला होना है। लचीलेपन के महत्व को भगवान बुद्ध ने जीवन में समझा और उसे सांसारिक जगत को समझाया। बुद्धिस्म में बहुत गहराई है। यही वजह है कि अलग-अलग राष्ट्रों में इसके स्वरूप और इसके व्यावहारिक पक्ष में काफी अंतर देखने को मिलता है। बुद्ध का दिया गया ज्ञान और संदेश पूरे विश्व में आज व्यावहारिक है। जिस समय से हम गुजर रहे हैं इस हालत में बुद्ध का ज्ञान और भी व्यावहारिक हो जाता है। युद्ध नहीं बुद्ध वर्तमान की जरूरत है।
विभाग के सचिव श्री प्रणव कुमार ने मंच से संबोधित करते हुए कहा कि भगवान बुद्ध का इतिहास प्राचीन भारत का इतिहास रहा है। जब वैदिक कर्मकाण्ड जटिल हो रहा था उसी समय बुद्ध का अवतरण पृथ्वी पर होता है। बुद्ध का दिया गया मध्यम मार्ग का ज्ञान आज भी उतना ही व्यावहारिक है जितना कालांतर में कभी रहा होगा। बुद्ध के ज्ञान का असर बाद के 1 हज़ार वर्षों तक भारत पर सीधे तौर पर रहा। हम बिहारियों के लिए गर्व का विषय है कि भगवान बुद्ध को बिहार की धरती बोधगया में बुद्धत्व की प्राप्ति हुई। हम बिहारी गर्भशाली हैं कि भगवान बुद्ध का कार्य क्षेत्र बिहार रहा। पंचशील का सिद्धांत भी भगवान बुद्ध के द्वारा ही बताया गया रास्ता था जिसे कालांतर में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रयोग किया। यह संगोष्ठी भगवान बुद्ध के बताए गए सिद्धांतों और धारणाओं को समझने में महती भूमिका अदा करेगी इसमें कोई शक नहीं है।
शैक्षणिक सत्र में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के रिटायर्ड प्रोफेसर (डॉ.) सीताराम दुबे ने “शिक्षा के क्षेत्र में बौद्ध धर्म का योगदान” विषय पर विस्तृत व्याख्यान दिया। बुद्ध, धर्म और संघ बौद्ध धर्म के त्रिपिटक है। बुद्ध ने अपने प्राप्त ज्ञान से संसार के दुख को दूर करने की कोशिश की। यह बुद्ध के व्यक्तित्व का ही आकर्षण था कि राजगीर में 1000 ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म को उसे दौर में अपना लिया था। महायान की पृष्ठभूमि भी पाटलिपुत्र की इसी धरती पर रची गई थी जो हम जानते हैं कि बौद्ध धर्म का एक बड़ा धड़ा है। बुद्ध ने हमेशा लोक भाषा को बढ़ावा दिया और अपने संदेश को आम जनों तक पहुंचाने के लिए लोक भाषा का ही प्रयोग किया। उस समय का यह क्रांतिकारी परिवर्तन था।
इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर (डॉ.) रूपेन्द्र कुमार चटोपाध्याय ने “Buddhist Footprints: Socio-religious Interactive Network Between the Himalayan, Sub-Himalayan regions and Bihar” विषय पर व्याख्यान दी। इन्होंने विस्तार से बताया कि बुद्धिस्म का विस्तार कैसे विश्व के दूर दराज के क्षेत्र तक हुआ। उन्होंने कहा कि व्यापारियों के साथ ही वैसे लोग जो धर्म के प्रचार-प्रसार से जुड़े थे उन्होंने बौद्ध धर्म को आम लोगों तक पहुंचा। इस धर्म के विस्तार में भिक्षुओं का रोल काफी महत्वपूर्ण रहा है। बौद्ध स्तूप ज्ञान और प्रेरणा के केंद्र हैं। तथा बुद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में भी इनका महत्वपूर्ण भूमिका है।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अरुण कुमार यादव ने “अज्ञात बुद्ध : पालि, संस्कृत और चीनी स्रोतों में बुद्धचरित की विविध परंपराएं” विषय पर महत्वपूर्ण प्रस्तुति दी।
अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि बिहार की धरती बोधगया में भगवान बुद्ध का आध्यात्मिक जन्म हुआ जब उन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त किया। उन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म काफी गहराई और समग्रता वाला धर्म है। किसी एक चीज को पकड़ कर बैठ जाना खुद को सीमित करना है। इस धर्म को समझने के लिए व्यापक नजरिए का होना बहुत जरूरी है।
कार्यक्रम के अंत में सुश्री कहकशाँ, विशेष कार्य पदाधिकारी, कला, संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया। कार्यक्रम को सफल बनाने में डॉ. हर्ष रंजन कुमार, वरीय तकनीकी सहायक की महती योगदान रही।
इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में विद्यार्थियों, शोधार्थियों और बुद्धिजीवियों की भागीदारी रही, जिससे यह आयोजन अत्यंत सफल और ज्ञानवर्धक सिद्ध हुआ।