विचार

*हमारे गांव का चबूतरा*

कविता : तेज नारायण राय

विशाल बरगद की छांव में
मौन समाधि लिए बैठा
हमारे गांव का यह चबूतरा
ईंट पत्थर गारे से बना
सिर्फ कोई निर्जीव स्थल भर नहीं है

इससे जुड़े
कई किस्से कहानियां हैं
हमारे गांव की
जिसे इसी चबूतरे पर बैठकर
हमने सुना है
अपने गांव के बूढ़े बुजुर्गों से

यहां तक कि यहां रहते
बहुत कुछ देखा भी है
अपनी आंखों से
और पढ़ा भी है इसपर लिखा
इसका अलिखित इतिहास

यह चबूतरा सहता है
सबके दुखों का भार
पर नहीं बताता कभी किसी को अपना दुख

इसी चबूतरे पर मां सूखाती थी धान पिताजी भी इसी चबूतरे पर बैठ बतियाते थे गांव घर के लोगों से
घर गृहस्थी का हाल-चाल
और दुपहरिया में बांटते थे खटिया की रस्सी

गांव की पंचायत हो या राजनीति
या फिर शादी विवाह नाच गाना
भजन कीर्तन
सब कुछ इसी चबूतरे पर
होता आया है वर्षों से

इसी चबूतरे पर
गांव की अस्सी साल की एक बुढ़िया रोज लुकटिया टेकती आती है
और घंटों बैठकर बतियाती है
अपने आप से और याद करती है अपने गुजरे दिनों को

गांव का एक मताल भी अक्सर
दारू पीकर आता है
और जी भरकर गालियां देता है
ऊपर से नीचे तक सरकार को

एक प्रेमी जोड़ा भी अक्सर
आकर बैठता है इस पर
और सबसे छुप छुपाकर
खेलता है आंख मिचौली

गांव भर की महिलाएं भी
जब आती हैं
चापाकल में पानी लेने
तब यहीं बैठकर बतियाती हैं अक्सर
एक दूसरे के घर की चुगली करती
पूरे गांव के किस्से

थका हारा कोई राहगीर भी आता है तो इसी चबूतरे पर लेटकर
उतरता है अपनी थकान

अक्सर सबका दुख-सुख
हरता है यह गांव का चबूतरा
देता है सबको एक नई ऊर्जा
जाति धर्म, ऊंच नीच, गरीब अमीर
कभी किसी से भेदभाव नहीं करता
देता है एक समान सबको सम्मान

इसमें हमारे गांव की आत्मा बसती है पूरे गांव का इतिहास छिपा है इसमें

अब यह अलग बात है कि
इसी गांव में रहते कभी
सुनाई नहीं पड़ी तुम्हें
इसकी आत्मा की आवाज

क्योंकि तुम्हारे लिए तो यह सिर्फ
ईंट पत्थर गारे से बना
एक निर्जीव चबूतरा भर है यह !

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