मैंने अपने देश को अपना घर परिवार माना है – वीर सावरकर
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नवेंदु मिश्र
जिन्होंने अंग्रेजों और उनके दलालों के नस नस में भय पैदा कर दिया क्या उन्हें किसी भी स्थिति में डरपोक माना जाना चाहिए (विनायक दामोदर सावरकर)? बल्कि अंग्रेजों के दलालों ने उन्हें भय वस दुष्प्रचार करने में सारी शक्ति लगा दी। जब तुम अपने देश के क्रांतिकारियों और अपनों के त्याग और बलिदान को भी भूल जाते हो तो सोचो कि तुम गुलाम क्यों न बने रहोगे चाहे वह गुलामी राजनीतिक, धार्मिक ,आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से ही क्यों ना हो?
जो अंग्रेजों के साथ घूमते थे और दारू बाजी करते और अंग्रेजों की औरतों के साथ ऐय्याशी करते थे क्या वो बलिदानी थे तथा जिन लोगों को अंग्रेजों की बनाई कांग्रेस में भी एक वोट नहीं मिला वो और उनके खानदान से फर्जी लोगों को कैसे भारत के भाग्यविधाता मानते हो ?
हिंदुस्तानियों जबाब दो कि आजादी के बाद भी वीर सावरकर को जेल में क्यों रखा गया था ?
एक कल्पना कीजिए तीस वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है, जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है।
इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति-पत्नी की भेंट न हो। ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी। कल्पना मात्र से आप सिहर उठे ना ? जी हाँ बात है भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर की यह परिस्थिति उनके जीवन में आई थी, जब अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी की कठोरतम सजा के लिए अंडमान जेल भेजने का निर्णय लिया और उनकी पत्नी उनसे मिलने जेल में आईं मजबूत ह्रदय वाले वीर सावरकर ने अपनी पत्नी से एक ही बात कही– “तिनके-तीलियाँ बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना। यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं। अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं। मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए। इस दुनिया में कुछ भी बोए बिना कुछ उगता नहीं है। धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में गड़ना ही होता है. वह बीज जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है, यदि हिन्दुस्तान में अच्छे घर निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करना चाहिए. कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा” कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है। परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा. यमुनाबाई, बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि “यही पति मुझे जन्म-जन्मांतर तक मिले” ऐसा कैसे कह सकती हो” यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी।
अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ (उन दिनों यही माना जाता था, कि जिसे कालापानी की भयंकर सजा मिली वह वहाँ से जीवित वापस नहीं आएगा)।
अब सोचिये, इस भीषण परिस्थिति में मात्र 25-26 वर्ष की उस युवा स्त्री ने अपने पति यानी वीर सावरकर से क्या कहा होगा?? यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं, और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया। उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई। सावरकर भी चौंक गए, अंदर से हिल गए। उन्होंने पूछा ये क्या करती हो? अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा, “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए। अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है। इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है।यदि आप सत्यवान हैं, तो मैं सावित्री हूँ। मेरी तपस्या में इतना बल है, कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊँगी।आप चिंता न करें। अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें हम इसी स्थान पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
क्या जबरदस्त ताकत है उस युवावस्था में पति को कालापानी की सजा पर ले जाते समय, कितना हिम्मत भरा वार्तालाप है सचमुच, क्रान्ति की भावना कुछ स्वर्ग से तय होती है, कुछ संस्कारों से, यह हर किसी को नहीं मिलती ।