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पार्ट ९ : कहाँ गए वो दिन ?

लेखक:- बिहार प्रदेश के पूर्व महानिदेशक की कलम से

वर्ष 1950. UPSC का रिज़ल्ट निकला और गया ज़िले के प्रसिद्ध वकील का लड़का, जिसने कॉलेज की पढ़ाई उसी वर्ष पूरी की थी, उत्तीर्ण घोषित किया गया। स्वाभाविक रूप से, परिवार में जश्न का माहौल था। वकील साहब का बेटा IPS बन गया।वकील साहब मेरे दादाजी और उनके पुत्र मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री जगदानंद, जो 1985 में, बिहार के 28वें DGP बनकर सेवा निवृत हुए। दादाजी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया था। उन्होंने मेरे पिताजी को गया के ज़िला जज के घर ले जा कर आशीर्वाद दिलवाने की योजना बनाई। नियत दिन, जो छुट्टी का था, दोनों पिता-पुत्र गया ज़िले के ज़िला जज के आवास पर पहुंचे। मेरे स्वर्गीय पिताजी ने मुझे वह दृश्य वर्णन कर बताया जो उनके मस्तिष्क में बैठा था। कुल मिलाकर, देश की आज़ादी के तुरन्त बाद एक पदाधिकरी के बंगले में प्रवेश और आम लोगों की पदाधिकारी में प्रत्यक्ष आस्था उनके दिमाग पर एक गहरा छाप छोड़ चुकी थी। आज़ादी की लड़ाई से रू-ब-रू एक नौजवान तुरन्त IPS बन कर, पदाधिकरी के सामने बैठा हो, जिसको वह विदेशी शासन का प्रतीक मानता हो, उसके मन में तरह तरह के प्रश्न कौंध रहे होंगे।मैंने अपने पिताजी से इस प्रश्न का उत्तर पूछा जब वह मुझे यह वाक़या सुना रहे थे।ज़िला जज साहब से मेरे दादाजी ने अनुरोध किया कि वे उनके पुत्र को सीख स्वरूप एक बात बता दें।ज़िला जज ने उन्हें एक अद्भुत ज्ञान दिया। उन्होंने बताया कि जज की कुर्सी सबसे ऊँची जगह पर रखी जाती है जिससे कि वह उस कमरे में हो रही सभी घटनाओं को सहज रूप से देख सके। उसके पीठ के पीछे कोई नहीं होता। उसके आँख के नीचे, उसका पेशकार होता है जिसे वह देख नहीं पाता क्योंकि लाल रंग के कपड़े से जज साहब की दृष्टि बाधित हो जाती है। तुमको भी पूरी ज़िन्दगी इसी प्रकार का माहौल मिलेगा। अपनी सीमा के बाहर जाकर यह देखने का प्रयास मत करना कि कौन क्या कर रहा है, लेकिन अगर कोई शिकायत करे तो तत्परता पूर्वक और शिकायतकर्ता की संतुष्टि की सीमा तक, कार्रवाई करना।दोनों पिता-पुत्र ज़िला जज से मुलाक़ात के बाद घर लौट गए।वह सीख ना केवल मेरे पिता के काम आई, बल्कि मेरे भी।

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