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पार्ट १८ : कहाँ गए वो दिन?

बिहार प्रदेश के पूर्व महानिदेशक की कलम से

स्थल बेतिया कलेक्ट्रेट का साधारण सा मैदान। माननीय मुख्यमंत्री का निर्णय। बड़ी आम सभा, उसी छोटे से मैदान में होगी। समय भी मिला एक दिन। किसी तरह व्यवस्था की गई।
ज़िले के एक मंत्री भी हुआ करते थे जिनको मुझसे चिढ़ थी। उनका कहना था मैं आम आदमी को बहुत अधिक समय देता हूँ और उनको नहीं। उनकी शिकायत तथ्यात्मक रूप से सही थी। उन्होंने यह शिकायत मुख्यमंत्री जी से की थी और संभवतः वह दौरा आम जनता के सामने, मुझे डांटने के प्रयोजन से ही किया गया था।
एक खेल खेला गया। मुख्यमंत्री जी का भाषण चल रहा था। मैं मंच के नीचे अलर्ट मुद्रा में था। कभी मंच पर नज़र रखता, कभी भीड़ पर। अचानक मेरी नज़र मंच पर बैठे मंत्री जी पर पड़ी। उन्होंने पॉकेट से एक कैंची निकाली और पलक झपकते माइक का तार काट दिया। सभा में अव्यवस्था फैली। मैंने तुरंत एक आदमी को ऊपर मंच पर भेजा और कटे हुए तार को टेप कराया। पूरे प्रकरण में दो मिनट लग गए।
माननीय मुख्यमंत्री जी खीज में पुलिस अधीक्षक, यानी मेरे सम्बन्ध में माइक पर कुछ बोल गए। मकसद था मेरा मनोबल आम लोगों के बीच छोटा करना। मैं अपनी सफाई आम जनता के बीच तो दे ही नहीं सकता था। लगा कि राजनीतिज्ञों को जनता के बीच अपनी बात रखने की इतनी बड़ी शक्ति है जो पदाधिकारियों को नहीं है।मन व्यथित हो गया था। अचानक मैंने देखा कि एक निवस्त्र कृपण व्यक्ति मीटिंग के लिए लगाए बल्ली पर चढ़ गया। चिल्ला कर उसने कहा, “ए मुख्यमंत्रीजी, हमार SP के खिलाफ़ रउवा कुछ ना बोल सकीं”। वह नीचे उतर चुका था। सभास्थल पर सन्नाटा छाया। पुनः मुख्यमंत्री जी का अभिभाषण शुरू हुआ।उस व्यक्ति को मैं जानता पहचानता नहीं था। वह बाद में भी मुझसे मिलने नहीं आया।इस छोटी सी घटना ने मेरे ज्ञान चक्षु ही खोल कर रख दिए।

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