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किशनगंज : MLA बनने के एक साल बाद ही MP का चुनाव जीत गए थे पप्पू यादव

28 मार्च को लोकसभा चुनाव के नामांकन के पहले दिन तक पूर्णिया से लेकर दिल्ली तक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता उनकी सीट को लेकर माथापच्ची करते रहे। पप्पू यादव को लेकर इतनी माथापच्ची क्यों हो रही है इसके पीछे उनका इतिहास और वोटरों की नब्ज पकड़ने की उनकी कला की वजह से ही संभव है

किशनगंज, 28 मार्च (के.स.)। धर्मेन्द्र सिंह, पूर्णिया 18वीं लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय करके जनअधिकार पार्टी लोकतांत्रिक के संस्थापक राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने जहां सबको चौंका दिया, वहीं पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से ही चुनाव लड़ने की उनकी जिद्द ने कांग्रेस समेत पूरे महागठबंधन को पशोपेश में डाल दिया। 28 मार्च को लोकसभा चुनाव के नामांकन के पहले दिन तक पूर्णिया से लेकर दिल्ली तक पार्टी के नेता और कार्यकर्ता उनकी सीट को लेकर माथापच्ची करते रहे। पप्पू यादव को लेकर इतनी माथापच्ची क्यों हो रही है इसके पीछे उनका इतिहास और वोटरों की नब्ज पकड़ने की उनकी कला की वजह से ही संभव है। सीट शेयरिंग की पेंच क्यों फंसी है अगर आपको यह समझना है तो आपको पहले राजेश रंजन का इतिहास जनना होगा। गौर करे कि यादव वोटरों और गरीबों पर जबरदस्त पकड़ रखने वाले पप्पू यादव ने साल 1990 में भारतीय राजनीति में कदम रखा। 24 दिसंबर 1969 को बिहार के कुमारखंड के खुर्दाकरवेली गांव में एक जमींदार परिवार में जन्मे राजेश रंजन ने मधेपुरा के सिंहेश्वर से अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और वहां से 34 साल पहले विधायक के रूप में अपना पहला चुनाव लड़ा। इसके ठीक एक साल बाद 1991 में हुए आम चुनाव में पप्पू यादव ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से पर्चा भरा और वे जीत गए। उसके बाद से पप्पू यादव ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पूर्णिया लोकसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल करने के चार साल बाद और सिंहेश्वर सीट से विधायक के रूप में चुनाव जीतने के 5 साल बाद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव एक बार फिर से अपनी राजनैतिक पिच की सिंहेश्वर की ओर लौटे। लेकिन विधायक और सांसद बनने के बीच गुजरे वक्त ने उनके लिए सिंहेश्वर में राजनीतिक समीकरण भी बदल दिया। 1995 में हुए विधानसभा चुनाव में सिंहेश्वर सीट से पप्पू यादव को हार का सामना करना पड़ा। विधायक कैंडिडेट के रूप में मिली हार के बाद पप्पू यादव एक बार फिर से पूर्णिया की ओर लौटे और उन्होंने साल 1996 में सपा ने उन्हें अपने प्रत्याशी के रूप में चुनावी मैदान में उतारा। इस चुनाव में उन्हें जीत हासिल हुए और वे दूसरी बार सांसद के रूप में दिल्ली पहुंचे। वर्ष 1999 में पप्पू यादव ने तीसरी बार लोकसभा चुनाव में नामांकन किया। इस बार एक बार फिर से उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनावी पर्चा दाखिल किया। इस चुनाव में वे तीसरी बार पूर्णिया सीट से लोकसभा के सदस्य चुने गए। इसके बाद साल 2004 में पप्पू यादव ने लालू प्रसाद यादव की लालटेन की लौ के सहारे राजनीति के गिलयारों में रास्ता तलाशने लगे। इस साल हुए आम चुनाव में उन्हें राजद ने मधेपुरा से टिकट दिया और वे चुनाव जीत गए। इसके ठीक 10 साल बाद साल 2014 में मोदी लहर के बावजूद पप्पू यादव ने न सिर्फ बीजेपी बल्कि मधेपुरा सीट से चार बार के सांसद रहे शरद यादव को 50 हजार वोटों के अंतर से हराया। 16वीं लोकसभा चुनाव में जदयू के कद्दावर नेता रहे शरद यादव को पटखनी देने के ठीक एक साल बाद ही राजद ने पार्टी की टिकट पर सांसद रहते पप्पू यादव को निष्कासित कर दिया। राजद ने उन्हें पार्टी विरोधि गतिविधियों के चलते दल से बाहर कर दिया। लेकिन इसी साल पप्पू यादव को बेस्ट सांसद का अवार्ड मिला। राजद से निकाले जाने के बाद पप्पू यादव ने राजद और जदयू के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और अपनी पार्टी खड़ी की। पार्टी बनाने के बाद उन्होंने साल 2019 में मधेपुरा से अपनी ही पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा, मगर वे इस चुनाव में हार गए। उन्हें सिर्फ 8 फीसदी ही वोट प्राप्त हुए और उन्हें जदयू के दिनेश चंद्र यादव ने 17वीं लोकसभा चुनाव में हरा दिया।

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