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इमरजेंसी के पचास वर्ष: एक संस्मरण सस्ती रोटी की दुकान और नसबंदी अभियान – प्रो. (डॉ.) सजल प्रसाद

किशनगंज,26जून(के.स.)। धर्मेन्द्र सिंह, 1974 से 1977 — यह कालखंड भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का ऐसा अध्याय है, जो न सिर्फ देशवासियों की स्मृतियों में जीवित है, बल्कि विश्व राजनीति के विद्यार्थियों के लिए भी एक अध्ययन का विषय है। तब मेरी उम्र महज 11 वर्ष थी, और 1977 में 14 वर्ष का हो चुका था। यह उम्र शारीरिक और मानसिक विकास का समय होता है, जब घटनाएँ भीतर गहरी छाप छोड़ जाती हैं। मेरे मन में उस दौर की दो घटनाएँ आज भी जीवंत हैं — ‘सस्ती रोटी की दुकान’ और ‘नसबंदी अभियान’।

जब भी इमरजेंसी की बात होती है, तो ‘जयप्रकाश आंदोलन’ का जिक्र स्वतः आता है। 1974 में महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ बिहार से जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में छात्र आंदोलन शुरू हुआ, जिसे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का नाम दिया गया। हालाँकि उस समय इसे अधिकतर लोग ‘जयप्रकाश आंदोलन’ के रूप में ही जानते थे।

मेरे चाचा स्व. विजय प्रसाद जयप्रकाश नारायण के कट्टर अनुयायी थे। हमारे घर में हर रोज आंदोलन की बातें होती थीं। वे समाजवादी नेता व पूर्व सांसद लखनलाल कपूर, युवराज सिंह, तस्लीमुद्दीन और बद्रीनारायण मंडल जैसे नेताओं के साथ सक्रिय भूमिका में थे। मैं उस समय एक नन्हा श्रोता मात्र था, लेकिन उस समय का हर दृश्य मेरे स्मृति पटल पर अंकित है।

किशनगंज में जब आंदोलन अपने चरम पर था, तब हमारे मोहल्ले से कई छात्र सक्रिय रूप से इससे जुड़े थे। इनमें राजेश्वर बैद्य, माधव प्रसाद मोदी, अभय कुमार रामदास, ईश्वर चंद्र सोनार, अजय प्रसाद मोदी, ओम प्रकाश साहा जैसे नाम आज भी मेरी स्मृति में हैं। उन्हीं दिनों लालू प्रसाद यादव भी किशनगंज आए और इन छात्र नेताओं के साथ पूरा दिन बिताया। जयप्रकाश नारायण स्वयं रुईधासा मैदान में विशाल जनसभा को संबोधित करने आए थे, जिसे आज भी लोग याद करते हैं।

इन्हीं छात्रों द्वारा गांधी चौक पर ‘सस्ती रोटी की दुकान’ चलाई गई। इस दुकान का उद्देश्य सिर्फ सस्ते में भोजन उपलब्ध कराना नहीं था, बल्कि इससे आम जन को आंदोलन से जोड़ने और महंगाई के खिलाफ प्रतिरोध जताने का कार्य हुआ। बाद में अन्य स्थानों पर भी ऐसी दुकानें खुलीं और यह आंदोलन का एक जीवंत प्रतीक बन गया।

फिर आया 25 जून, 1975 — जब इमरजेंसी की घोषणा हुई। मेरे मोहल्ले के कई छात्र नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और मेरे चाचा भूमिगत हो गए। किशनगंज समेत पूरे सीमांचल में विपक्ष की गतिविधियाँ दबे पाँव जारी रहीं।

इमरजेंसी का सबसे भयावह पक्ष था ‘नसबंदी अभियान’। संजय गांधी के नेतृत्व में इस अभियान ने आतंक का रूप ले लिया था। किशनगंज जैसे शहर में भी इसकी धमक महसूस की गई। चर्चा होती थी कि नसबंदी के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अविवाहित युवकों, बुजुर्गों तक को पकड़कर जबरन नसबंदी कराई जाती है। कई युवाओं ने घर से निकलना छोड़ दिया था। वह समय भय और अनिश्चितता से भरा था।

इमरजेंसी हटने और 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद एक नई आशा जगी, पर व्यवस्था में अपेक्षित परिवर्तन नहीं आ सका। लोकतंत्र तो लौटा, पर व्यवस्थागत परिवर्तन की आशाएँ अधूरी रह गईं।

यह संस्मरण उस दौर के एक किशोर की आँखों से देखा गया सच है, जिसने लोकतंत्र के सबसे काले अध्याय को बहुत करीब से देखा और महसूस किया।

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