पार्ट १०: कहाँ गए वो दिन?

लेखक :-बिहार प्रदेश के पूर्व महानिदेशक की कलम से
कोसी की विभीषिका झेलता हुआ एक भूखंड, जहाँ पटना से पहुँचने में ही तबीयत ख़राब हो जाए। उस भूखंड को ज़िला का दर्जा दे दिया जाए और एक निहायत ही बिना किसी तज़ुर्बे वाले पुलिस अधीक्षक को, बिना किसी आवास अथवा कार्यालय के, वहाँ भेज दिया जाए, तो आप समझ सकते हैं कि उस मानव की स्थिति एक टापू पर जहाज टूट जाने के पश्चात् गिरे हुए व्यक्ति के समान होगी। ऊपर से तुर्रा यह कि उस भूखंड की जनता अपराध तले कराह रही हो और किसी व्यक्ति का इंतज़ार कर रही हो जो उसका उद्धार करे।उस बेबस मानव की भूमिका ऊपर वाले ने मुझे ही निभाने को दी। ज़िले का विधिवत् उद्घाटन राज्य के मुख्यमंत्री ने किया और मंच पर बुला कर सम्मानपूर्वक ज़िले की जनता से परिचय करा दिया और हेलीकॉप्टर से लौट गए। टापू पर छोड़ गए एक बेसहारा पुलिस अधीक्षक को, बिना किसी संसाधन के और सामने खड़ा कर गए उस जनता को जो अपनी अपराध की समस्याओं से ग्रसित थी, जिसे मैं अपनी व्यथा क्या सुनाता, वह तो स्वयं ही व्यथित थी।समस्याओं से घिरा, सिर पकड़ बैठा, सोचा तो तरकीब सूझी । सहारा सिर्फ कानून का ही हो सकता है। फ़िजिक्स का विद्यार्थी रहा था, सो कठिन सवाल के सरल हल ढूँढने की आदत पड़ गई थी। दुर्भाग्यवश पुलिस में “पीछे देख आगे चल” की ही प्रशिक्षण दी जाती है, नए ढंग से सोचने की नहीं। अपराधियों के ज़मानतदारों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया था। उनके सत्यापन और उनकी प्रोपर्टी का भी। मात्र 15 दिनों में ही करीब 100 ज़मानतदार मिले जो अस्तित्वहीन अथवा मानसिक रूप से विकलांग थे। जिन वकीलों ने उनका सत्यापन किया, उनके विरुद्ध CJM के समक्ष आवेदन दिया कि उनपर आपराधिक संज्ञान ली जाए। CJM साहब के लिए भी यह नई पहेली थी। यह खेल उन्होंने पहले खेला नहीं था, सो असमंजस में थे। उन्होंने मुझसे कानूनी शास्त्रार्थ किया। वकीलों का न्यायिक पदाधिकारियों के साथ प्रतिदिन का सम्बन्ध रहता है, ख़ास कर अगर दोनों पक्ष स्थानीय हों। लिहाज़ा, CJM महोदय मेरे आवेदन को बहुत गंभीरता से लेने के पक्ष में नहीं थे। मैंने शास्त्रार्थ के दौरान अपने पूरे कानूनी ज्ञान को उनके समक्ष रख दिया। यह भी मंशा ज़ाहिर कर दी कि मेरे लिए ऊपर के न्यायालय का रास्ता खुला है।
वकीलों को जब यह मालूम हुआ कि नए पुलिस अधीक्षक ने ठान ली है तो पूरा बार एसोसिएशन कर-बद्ध मुद्रा में मेरे कार्यालय में आया।
आग्रह था कि भविष्य में ज़मानतदारों का सत्यापन नहीं करेंगे, आप अपना आवेदन वापस ले लें। मैंने उन्हें बताया कि मेरी किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है, वे अपना प्रोफेशनल काम करें, लेकिन प्रोफेशनल तरीके से।
अपराधियों की ज़मानत बेशक उच्चतम न्यायालय से हो जाए, परन्तु ज़मानतदार उन्हें मिलेंगे नहीं इसलिए ज़मानत मिलने पर भी, जेल के बाहर वह नहीं आने वाले । ज़िले में संगीन अपराध के मामले शून्य हो गए। DGP को स्वाभाविक शंका हुई कि अपराध दर्ज़ ही नहीं हो रहे। उन्होंने CID की पूरी टीम भेजी जो ज़िले के सुदूर छेत्रों में गई। उनका रिपोर्ट आया कि सही में गंभीर अपराध शून्य हो गए हैं। DGP ने सभी पुलिस अधीक्षकों को मेरी इस प्रक्रिया को अपनाने का लिखित आदेश दिया।
इस बीच वही हुआ जो सरकारों में हमेशा होता आया है। ट्रांसफर, तबादला। सामान्य के अतिरिक्त मेरी विदाई हुई। ज़िले के बार एसोसिएशन के द्वारा विधिवत् विदाई , जो मैंने कभी सुना नहीं था कि किसी पुलिस अधीक्षक को मिली थी ।शायद उनके मन में यह विचार आया होगा कि इस व्यक्ति ने बिना पूर्वाग्रह के कानून सम्मत काम किया है।
सीख के साथ मैं उस ज़िले से रुकसत हुआ।