हे बिहार के भाग्य विधाता ! सुन लो मेरी पुकार..

पटना/श्रीधर पांडे किसी भी राष्ट्र में अमन, चैन, खुशहाली एवं शांति का वातावरण तब तक तैयार नहीं हो सकता, जब तक उस समाज में बेरोजगारी जैसी बीमारी की जड़ बढ़ती ही जा रही हो।आज हम अन्य ग्रहों पर जाने एवं वहाँ की जानकारी के लिए लालायित जरूर है लेकिन हमारा एक समाज रोटी से भी ज्यादा गरीब है इस बात को भूल जा रहे हैं।आर्थिक असमानता ही समाज में अपराध को जन्म देती इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता हैं चुकि जब तक समाज मे गरीबी नाम की कोढ़ रहेगी, एक व्यक्ति रोटी के लिए असक्षम रहेगा तो वह कोई भी कम करने को उतारू हैं।आपने एक कहावत जरूर सुना होगा “पापी पेट का सवाल है “गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि चटोरी जीभ एवं शरीर के अन्य भागों में रसायनिक पदार्थ भेजने के लिए लाचार पेट को खुद बदनाम होना पड़ रहा हैं।यह कहना इसलिए नितांत जरूरी रहा कि हमारे देश मे आजादी के बाद से आने वाली सरकारों ने हमेशा से यह दावा करती आ रही है कि हमने पांच सालों में ये किया, विकास की गंगा बहा दी लेकिन हकीकत यह है कि यह विकास तो बेचारा पापी पेट की तरह बदनाम हो चुका है, विकसित हुए है तो सिर्फ वो लोग जो इस विकास की दावा कर रहे थे या उसके सम्पर्क में थे।दीगर बात यह है कि आज के आधुनिकता के युग मे हर समाज में कुछ सामाजिक परिवर्तन देखने को तो जरूर मिले है, जो निचले पायदान तक पहुंचने में कुछ सफलता भी प्राप्त की हैं लेकिन हमारा एक तबका जो बेरोजगारी से जूझते हुए हर साल अपनी आत्महत्या की दर को बढ़ाता आ रहा हैं इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता।आज हम आजादी के बाद के बिहार की बारे में जानना चाहेंगे जहाँ गरीबी, अशिक्षा इस कदर है कि लोग जाति से दामाद चुनने के साथ साथ सरकार भी चुनने के काम करते आ रहे हैं।जितनी भी सरकारें आयी ‘विकास-विकास’ चिल्लाकर खुद विकसित हो गए लेकिन यहाँ की स्थिति में वे सुधार लाने के लिए कोई रोड मैप बनाने की योजना पर विचार नहीं किया।किस तरह हम यहाँ की समस्याओं को समाधान करे इस पर विचार करने की बजाए काफी चौड़ी- चौड़ी सड़के, जगह जगह ब्रिज,बड़े-बड़े मॉल, पांच सितारे होटल जैसे स्कूल, अस्पताल, जगमगाते शहर, बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा खेती के ऊंच प्रबन्धन यह बिहार के विकास मॉडल में कुछ लोग की एडजस्ट कर पाएंगे।यह मॉडल अमेरिकी, यूरोपीय मॉडल हो सकता हैं, जहाँ जाने के लिए आज भी मिडिल एवं लोअल मिडिल क्लास को सम्भव नहीं।
खैर मनाइए कि मुंबई, गुजरात, दिल्ली जैसे शहरों में हमारे यहाँ के करोड़ो मजदूर काम कर वहाँ अपनी पेट काटकर कुछ पैसों को यहाँ भेजते है तो यहाँ की बाजार पर इसका असर नहीं पड़ पाता और उनके परिवार का भरण पोषण हो जाता हैं।किसी के घर मे एक रोजगार करने वाला आदमी हैं तो वह किसी तरह अपने घर परिवार चलाने के साथ साथ बच्चे को किसी प्राइवेट स्कूल सन्स्थान में नामांकन कराना ही बेहतर समझता हैं ताकि धीरे-धीरे कई दशकों बाद उसकी स्थिति में सुधार हो सके का सपना संजोए हुए हैं।अब बड़े शहरों में भी आधुनिकीकरण के तेजी से बढ़ती मांग को लेकर मजदूरों में बेरोजगारी तेजी से बढ़ रही हैं, लगभग दो तिहाई रोजगार छीनने को कगार पर हैं, जो भी माली, ड्राइवर, हाउस कीपर दाई का काम बचे हैं उन्हें कम कीमतों पर काम करनी पड़ती हैं।एक तो बढ़ती बेरोजगारी की समस्या दूसरी तरफ बाहर में मजदूरी कर कुछ पैसों को बचाना कितना मुश्किल हों जाता हैं,इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता हैं।यही दो पैसे बचाने के चक्कर, अपने आने वाले भविष्य के सपनो को देखने मे हमारे मजदूर भाइयों को कई तरह की बीमारियों से जूझना पड़ता हैं, जिसकी वजह से यहाँ के माइग्रेटेड मजदूर हर साल हजारों की संख्या में अपनी जान गवा बैठते हैं।हमारे यहाँ तो बीमारी का इलाज भी भगवान भरोसे है, जो लम्बी समय से चलती आ रही हैं।यहाँ कोई ऐसी योजना नहीं है जिसमे लूट न मचा हो, गरीबो को अनाज मिलने वाले में भी डीलर डकार जाता है, तो वही शौचालय एवं नल जल एवं आवास के नाम पर उगाही जारी हैं। स्थिति को सुधारने के लिए एक संकल्प लेने की जरूरत हैं।
हमारे यहाँ प्रकृतिक सम्पदा के उपयोग पर लगभग सभी मौनी बाबा बने हुए हैं।ज्यादा लोग विकास के नारे में भी फंसे हुए हैं।हमारे यहाँ जैविक खेती की बढ़ावा जो पहले थी, वह बिल्कुल समाप्त हो चुकी हैं, यही वजह रहा है कि न हम जल सम्पदा का उपयोग कर पा रहे हैं न जैविक का।बाढ़ की विभीषिका को देखते आ रहे है जो हर साल कितनो को अपनी अंदर समाहित कर चल जाता हैं।उसका भरपूर उपयोग पहले से होता आ रहा था, वही परम्परा अपनाने की जरूरत है, जिससे नदी, तालाब, नाले की उड़ाही भी हो जाती थी, एवं उसके मिट्टी से जैविक खेती को बढ़ावा भी मिलता था।
अगर सही मायनों में यहाँ के विकास करना चाहते हैं तो हमारे पास प्रकृतिक संसाधन के लिए भले ही खनिज न हो लेकिन यहाँ की ऐतिहासिक, पौराणिक धार्मिक महत्व की महत्ता एवं भगवान का आशीर्वाद ही मान लीजिए कि हमारा राज्य के पास विकास के लिए रास्ते जरूर हैं।उस रास्ते पर चलकर हम अपनी तकदीर बदल सकते हैं।अगर सही मायनों में आप बिहार के भाग्य विधाता बनना चाहते हैं “पूर्ण रोजगार एवं आर्थिक समाजिक समानता” का रोड मैप तैयार कर एक नया सन्देश देने की पहल करने को जरूरत हैं।
“सबसे पहले हमें अपने बाजार की स्थिति को सुधारना होगा।बिहार में बंद पड़े चीनी मिलें, जुट उद्योग की शुरुआत बिना निजी हाथों में सौपे शुरुआत करनी होगी।इससे लाखो लोगो को रोजगार निश्चित तौर पर मिलेगा।हाथ करघों एवं पॉवर लुमो को पुनरुद्धार कर उसके लिए कच्चा मेटेरियल तैयार करना होगा।इससे पर्यावरण में संतुलन के साथ साथ लाखो लोगो को रोजगार की सन्देश का आगाज बिहार से शुरुआत करनी चाहिए,ताकि लोकतंत्र की जननी, महात्मा बुद्ध एवं महावीर जैन की धरती से यह संदेश जाए कि बिहार ने बेरोजगारी दूर करने का बीड़ा उठा लिया हैं।
गौरतलब हो कि हम अनाज उत्पादन में अग्रणी हैं।दूध, सब्जी, फल के उत्पादन में भी हम कहीं से पीछे नहीं हैं, तो छोटे लघु एवं कुटीर उद्योग का बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान चलाया जाना जरूरी हैं।मसाले, तिलहन हम उपजाते है लेकिन अगर खाना हो तो बाजार से खरीदते है ताकि हर जगह इसकी व्यवस्था उपलब्ध नहीं हैं एवं पेकेजिंग खरीदना पड़ता है।आज की आधुनिकता में जहां समाजिक परिवर्तन एवं भोग विलासता ज्यादा देखने को मिली है, वह बीमारियों का भी घर है यही कारण है कि अब यूरोपीय एवं अमिरिकी देश ने भी रासायनिक उर्वरकों द्वारा उपजाए हुए अन्न को छोड़ना पसन्द करने लगे हैं और हम उसे अपनाकर गर्व महसूस कर रहे हैं।हे बिहार के भाग्य विधाता, हमारे अर्थशास्त्री, वैज्ञानिक, इंजीनियर, राजनीतिक एवं सामाजिक कार्य कर अपनी विशिष्ट पहचान स्थापित करने वाले, किसान एवं मजदूरों के नेता और सभी बुद्धिजीवी वर्ग मिलकर बिहार की रूप रेखा बनाने तैयार कर एक नया सन्देश देने का सिलसिला शुरू कीजिए नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब यहाँ की स्थिति बदतर होती जाएगी।