लगातार बढ़ते मार्क्स से शिक्षा व्यवस्था दिवालियापन की ओर:-मानवेन्द्र मिश्र

नालन्दा समझ मे नही आ रहा शुरुआत कहाँ से करू, आज जब आप लोगों से अपनी विचार व्यक्त कर रहा हूं तो इसके पीछे एक बहुत बड़ा व्यक्तिगत अनुभव भी है प्रधान न्यायिक दंडाधिकारी नालन्दा के पद पर 2016 से हूँ इस अवधि के दौरान लगभग 2700 बाल अपराधी से एवं उनके अभिभावकों से न्यायिक विचारण के दौरान मिलने बातचीत करने काउंसलिंग करने का अवसर मिला, सैकड़ों बच्चें ऐसे मिले जिन्होंने मैट्रिक और इंटरमीडिएट का एग्जाम दिया था।किन्तु परीक्षा परिणाम आशानुरूप नही आने के भय से कुछ ने घर छोड़ दिया था या कुछ ने आत्महत्या का प्रयास किया था,कुछ ने दबाव में ये मान लिया कि पढ़ाई लिखाई मेरे वश का है ही नही, कुछ पेशेवर अपराधी की संगती में आ गये थे।सारांश में यूँ कहे इन बच्चों में भय का माहौल था।इनके अभिभावकों से बात करने पर कुछ हास्यास्पद तथ्य सामने आये की इनके पड़ोसी, इनके रिस्तेदारों के बच्चों को प्रथम श्रेणी आया था, और मेरे पुत्र को द्वितीय श्रेणी इसलिये इन्होंने इसे लताड़ लगाई पिटाई की बचाव में ये अभिभावक तर्क देते थे कि उन्होंने वो सारी सुविधाएं अपने बच्चों को उपलब्ध कराई थी जो इनके रिस्तेदार और पड़ोसी ने अपने बच्चों को उपलब्ध कराई थी फिर परिणाम अलग क्यो मेरा तो सारा इन्वेस्टमेंट इन बच्चों पर किया हुआ बेकार चला गया।अब जबकि सीबीएसई बोर्ड की बारहवीं की परीक्षा का रिजल्ट आ चुका है।2 छात्राओं ने 500 में से 499 अंक हासिल किये हैं।मुझे फिर से चिंता होने लगी है उन हजारों बच्चों के लिये जब वो इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया में दिन रात इन बच्चों का साक्षात्कार देख रहे होंगे और इनके अभिभावक इन्हें प्रश्नवाचक निगाह से देख रहे होंगे।छात्राएं निश्चित रूप से बधाई की पात्र हैं।पर मौजूदा शिक्षा व्यवस्था और परीक्षा परिणाम में शत प्रतिशत अंक प्राप्त करने की इस अन्धा धुंध होर को देखता हुँ, इन बच्चों से या इन बच्चों के अभिभावक से जब कभी मिलता हूँ तब एक स्वभाविक और स्वतःस्फूर्त चिंता इसलिए भी होने लगता है कि मैं भी एक 4 वर्षीय पुत्र, और 6 माह के पुत्री का पिता हूँ कही न कही समाज की ये मनोवृति इन्हें भी प्रभावित कर इनके बचपन बालमन पर ऐसा असर तो नही डाल देगी की 90% से ऊपर अंक प्रतिशत प्राप्त नही करने पर ये बच्चे हींन भावना से ग्रसित हो कुंठा का शिकार तो नही हो जाएंगे और एक अच्छा इंसान बनने से भी वंचित न हो जाये।इन्हीं सब अंतर्त्रद्वन्द के बीच जब अपने अतीत अपने बचपन अपने प्राम्भिक शिक्षा को याद करता हूं तो एक सुखद आश्चर्य होता है कि बिहार के एक सबसे छोटे जिले शिवहर के बराही मोहन गाँव से सरकारी प्राथमिक विधायल से वर्ग 5 तक की पढ़ाई, फिर बगल के गावँ से अदौरी (रामदेव उच्च विद्यालय से मैट्रिक की पढ़ाई) गांव में बुनियादी सुविधाओं का आलम यह था कि आजादी के लगभग 66 वर्ष बीत जाने के बाद अर्थात वर्ष 2013 में बिजली आई यानि आप समझ सकते है मैं क्या आज से 6 साल पूर्व तक कि पूरी पीढ़ी लालटेन की रौशनी में पढ़ाई किया।गाँव के प्राथमिक विद्यालय में 2 शिक्षक थे जो सब विषय पढ़ाते थे कोई क्लास रुम जैसा शब्द नही सबसे आगे 1 क्लास, क्रमशःउसके पीछे अन्य वर्ग के छात्र, लेकिन इन सबों के बच्चों में पढ़ने का गजब का उत्साह मैं अपने परिक्षा परिणाम पे चर्चा करू तो मैट्रिक द्वितीय श्रेणी से उतीर्ण हुआ, इंटरमीडिएट में प्रथम श्रेणी को छू भर लिया।(62.7%) पुनः LL.B में द्वितीय श्रेणी, किन्तु इन कम मार्क्स से न तो मैं न मेरे माता पिता कभी परेशान हुए क्योकि उन्हें मालूम था की जिंदगी की अभी असली परीक्षा बांकी थी और मैं बता दूं कि ये द्वितीय श्रेणी मार्क्स ने मुझे इस पद तक पहुँचने में कहीं बाधक नही बना, मध्यप्रदेश लोक सेवा आयोग में भी साक्षात्कार या बिहार लोक सेवा आयोग में साक्षात्कार के दौरान कही से भी कोई आयोग के सदस्य ने कोई टिप्पणी नही की हाँ लेकिन इन मार्क्स के बजह बिहार में नियोजित शिक्षक या शिक्षा मित्र बनना उन दिनों मुश्किल था क्योंकि वहाँ आपका मूल्यांकन आपके मार्क्स द्वारा किया जा रहा था इस वजह मैं शिक्षक बनने से वंचित रह गया।
जिस बोर्ड के अंतर्गत पढ़ रहे बच्चे 500 में से 499 अंक ले आएं, 100 में से 100 अंक आएँ, उसकी अंक बच्चों की प्रतिभा की निशानी कत्तई नहीं हैं, ये एक पूरी शिक्षा व्यवस्था की दिमागी रूप से दिवालिया हो जाने की निशानी है।
हिंदी के प्रश्न पत्र में 4 काव्यांशों के काव्य सौन्दर्य पूछे गए थे।इस परिणाम के बाद इन चार कवियों के कविताओं को उनकी रचनाओं को पाठ्यक्रम से निकालकर बाहर कर देना चाहिए, कि कवि महोदय आपकी रचना की अंतिम समीक्षा आ चुकी है और उसके दस में से दस नंबर देकर अन्यतम होने की पुष्टि की जा चुकी है।आपकी रचना की समीक्षा पूर्ण हो चुकी है, उससे नए विचार उठने की कोई संभावना अब बची नहीं है।कॉपी जांचने वाले आचार्य महोदय के बैठने के लिए भारत के श्रेष्ठ आलोचक नामवर सिंह जी की कुर्सी लाई जानी चाहिए।अंग्रेजी पेपर में एक लेटर टू द एडिटर लिखना था।जिसमें महिलाओं की समसामयिक समस्याएँ और उसके सुधार पर अपने विचार लिखने थे।महिला आयोग की अध्यक्ष को अपनी कुर्सी तुरंत उन अध्यापिका महोदया के लिए छोड़ देनी चाहिए जिन्होंने पूरे अंक देकर ये पुष्टि कर दी कि महिलाओं की सभी समस्याएं समझी जा चुकी हैं और उनकी स्थिति सुधार के अंतिम तरीके आ चुके हैं।
वर्ष 2009 में साइंस/मैथ में 100 अंक लाने वाले छात्रों के दल को उनके शिक्षक PISA (प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट) (अंतर्राष्ट्रीय छात्र मूल्यांकन कार्यक्रम) में भेजा गया था जहाँ से ये आखिरी भारतीय दस्ता 2009 में भाग आया था और वापस तबसे गया ही नहीं।भारत के ये शतकवीर पूरे विश्व में नीचे से दूसरे स्थान पे आए थे।पर दोष इन मासूमों का नहीं है, दोष इन कमबुद्धि अध्यापकों, रट्टोत्पादी आंकलन व्यवस्था का है।
इसी आकलन व्यवस्था से निकले रट्टूबसंत कोचिंगों की लिफ्ट से आइआइटी/एम्स के माले पे जाएंगे।फिर सफलता की लिफ्ट चढ़कर मल्टीनेशनल कंपनियों में जाएंगे।और फिर विश्व की मल्टीनेशनल कंपनियां कहेंगी कि भारतीय छात्रों की एम्प्लोयाबिलिटी ही नहीं है।हमें इनकी फिर से ट्रेनिंग करानी पड़ती है।किसी छात्र के प्रैक्टिकल में 30 में 30 नंबर आये थे इंटर में।है न गज़ब और जब एप्पल का को-फाउंडर कह देता है कि ‘भारत के छात्रों में रचनात्मकता नहीं है’, तो हम गुस्सा हो जाते है। तो आखिर क्यों ये अधिकांश शतकवीर जिंदगी के आने वाले प्रतियोगी परीक्षा में कही नजर नही आते है तो क्या वर्तमान शिक्षा प्रणाली औऱ समाज की सोच से ऐसे बच्चे निकल रहे है जिन पर अतिरिक्त दबाव रहता है कि अपने मार्कशीट को मेरे पिता और मै इस मार्कशीट को फेसबुक पर डाल सके, व्हाट्सएप्प का स्टेटस बना सके।अंततः एक बार फिर से मेरा व्यक्तिगत निवेदन है की बच्चों के बचपन को मत छीनिये, इन बीज को प्रकृतिक तरीके से फूलने फलने का अवसर दीजिये।जिससे ये जिस भी फील्ड में कार्य करे समाज को वटवृक्ष के रूप में छाया दे सके।इन बच्चों पर अतिरिक्त दबाव मत डालिये जिससे ये पौधे रोग ग्रस्त हो जाये।अगर ये अंक छात्र के प्रतिभा का अंतिम मूल्यंकन करते तो मैं आज शायद न्यायाधीश के पद पर नही होता।(यह मेरे व्यक्तिगत विचार है इनसे असहमत होने की पूर्ण स्वतंत्रता है धन्यवाद।
लेखक-मानवेन्द्र मिश्र प्रधान न्यायिक दंडाधिकारी नालन्दा
रिपोर्ट-श्रीधर पांडे