पूरी दुनिया जानती है कि नेता जी सुभाष चंद्र बोस से पंडित जवाहर लाल नेहरू बहुत ही ज्यादा नफरत करते थे,कारण राजनितिक रहा हो या फिर जो भी लेकिन नेहरू सारी उम्र नेता जी से जलते रहे।जबकि नेता जी ने नेहरू को हमेशा सम्मान दिया।लेकिन देश की आजादी के बाद भी अपनी पूरी जिन्दगी भर नेहरुजी को यही लगता रहा कि नेता जी कभी भी अचानक ही देश के सामने प्रगट हो सकते हैं।इसी शंका से वे नेताजी के पूरे परिवार के ऊपर खुफिया निगरानी कराते रहे।इसका खुलासा भी अब हो चुका है।नेहरु जी के निर्देश पर ही नेताजी के कलकत्ता में रहनेवाले पारिवार के सभी सदस्यों की गतिविधियों पर खुफिया नजर रखी जाती थी।नेहरुजी को यह तो पता ही था कि नेता जी देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में हैं।
देश की जनता उन्हें तहे दिल से प्यार करती है।उन्हें लगता था कि अगर नेता जी कहीं फिर से लौट आये तो पलक झपकते उनकी सत्ता चली जाएगी।जाहिर है,नेहरु जी की सोच के साथ नेहरु के कांग्रेसी चाटुकार खड़े थे।1964 में नेहरु जी की मृत्यु के बाद भी 1968 तक नेताजी के परिजनों पर खुफिया एजेसियों की नजर रही।नेताजी के सबसे करीबी भतीजे अमिया नाथ बोस 1957 में जापान गए थे।इस बात की जानकारी नेहरु जी को मिली।उन्होंने 26 नवंबर,1957 को देश के विदेश सचिव सुबीमल दत्ता से कहा कि वे भारत के टोक्यों में राजदूत की ड्यूटी लगायें और यह पता करें कि अमिया नाथ बोस जापान में क्या कर रहे हैं ?यही नहीं उन्होंने इस बात की भी जानकारी देने को कहा था कि अमिया बोस भारतीय दूतावास या जहाँ तथा कथित रूप से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की अस्थियां रखी गयी हैं,वहां गये थे या नहीं।
सवाल यह उठता है कि आखिर नेहरु जी जापान में अमिया नाथ बोस की गतिविधियों को जानने को लेकर इतने उत्सुक क्यों थे ? क्या उन्हें लगता था कि यदि अमिया नाथ की गतिविधियों पर नजर ऱखने से नेताजी के बारे में उन्हें पुख्ता जानकारी मिल सकेगी ? इसके बाद से तो अमिया नाथ बोस पर देश में और उनके देश से बाहर जाने पर खुफिया नजर रखी जाने लगी और इस बात के प्रमाण भी मौजूद हैं कि अमिया नाथ बोस पर नजर रखने के निर्देश खुद नेहरु जी ने दिए थे।
नेहरु जी के बारे में कहा जाता है कि वे देश के प्रधानमंत्री बनने से पहले अमिया नाथ बोस के कलकत्ता के1,बुडवर्न पार्क स्थित आवास में जाते थे।पर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने अमिया नाथ बोस से संबंध लगभग तोड़ लिए।अमिय नाथ बोस न केवल एक वरिष्ठ वकील थे,बल्कि राजनयिक भी थे।नेताजी के पंडित नेहरु को 30 जून 1936 से लेकर फरवरी 1939 तक पत्र भेजने के रिकार्ड उपलब्ध हैं।सभी पत्रों में नेताजी ने नेहरु जी के प्रति बेहद आदर का भाव दिखाया है।लेकिन,नेहरु को लिखे शायद उनके आखिऱी खत के स्वर से संकेत मिलते हैं कि अंततःनेता जी को समझ में आ गया था कि वे (नेहरु जी) उनसे दूरियां बना रहे हैं।ये खत भी कांग्रेस के त्रिपुरी अधिवेशन के बाद लिखा गया था।यानी 1939 में,अपने उस 27 पन्नों के खत में वे साफ कहते हैं,”मैं महसूस करता हूं कि आप (नेहरु) मुझे बिल्कुल नहीं चाहते।दरअसल नेताजी इस बात से आहत थे कि नेहरु जी ने 1939 में त्रिपुरी में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उनका साथ नहीं दिया।नेता जी दोबारा कांग्रेस के त्रिपुरी सत्र में अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे।पर उन्होंने विजयी होने के बाद भी अपना पद छोड़ दिया था।क्यों छोड़ा था,इस तथ्य से सारा देश वाकिफ है।देश को ये भी पता है कि नेताजी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में गांधी जी के व्यक्तिगत उम्मीदवार डा.पट्टाभी सीतारमैय्या को करारी शिकस्त दी थी।इस नतीजे से कांग्रेस में आतंरिक कलह तेज हो गई थी।गांधी जी ही नहीं चाहते थे कि नेताजी फिर से कांग्रेस के अध्यक्ष बने।गांधी की इस राय से नेहरु जी भी इत्तेफाक रखते थे।
हालाँकि,देशभर के प्रतिनिधियों का प्रचंड बहुमत नेता जी के साथ खड़ा था।नेताजी को लेकर नेहरु के बदले मिजाज का एक उदाहरण लीजिए।जब नेताजी की आजाद हिन्द फ़ौज सिंगापुर से बर्मा के मार्ग से मणिपुर में प्रवेश करने की दिशा में आगे बढ़ रही थी तब नेहरु जी ने गुवाहाटी में आयोजित एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि अगर नेता जी अपनी सेना के साथ भारत को आजाद करवाने के लिए आक्रमण करेंगे तो वे खुद उनसे दो-दो हाथ करेंगे।इसमें कोई शक नहीं है कि अगर नेता जी यदि जीवित होते तो जिस विशाल जन आन्दोलन के ज्वार ने 1977 में कांग्रेस को शिकस्त दी थी,नेताजी के नेतृत्व में वैसा ही जन आन्दोलन 1962 में या उससे भी पूर्व कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर सकता था।हालांकि,अब अगर-मगर करने का कोई लाभ नहीं है।क्योंकि नेता जी जैसी सख्शियत बार बार जन्म नहीं लेती।