आइये जानते महादेव के बारे में, शिव त्रिदेवों में एक देव हैं।इन्हें देवों के देव भी कहते हैं।इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है….।
शिव त्रिदेवों में एक देव हैं।इन्हें देवों के देव भी कहते हैं।इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है।तंत्र साधना में इन्हे भैरव के नाम से भी जाना जाता है।हिन्दू धर्म के प्रमुख देवताओं में से हैं।वेद में इनका नाम रुद्र है।यह व्यक्ति की चेतना के अन्तर्यामी हैं।इनकी अर्धाङ्गिनी (शक्ति) का नाम पार्वती है।इनके पुत्र कार्तिकेय और गणेश हैं,तथा पुत्री अशोक सुंदरी हैं।शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है।शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं।कैलाश में उनका वास है।यह शैव मत के आधार है।इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है।भगवान शिव को संहार का देवता कहा जाता है।भगवान शिव सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं।अन्य देवों से शिव को भिन्न माना गया है।सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं।त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं।शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदिस्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं।शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है,लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं।शिव अपने इस स्वरूप द्वारा पूर्ण सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं।इसी स्वरूप द्वारा परमात्मा ने अपने ओज व उष्णता की शक्ति से सभी ग्रहों को एकत्रित कर रखा है।परमात्मा का यह स्वरूप अत्यंत ही कल्याणकारी माना जाता है क्योंकि पूर्ण सृष्टि का आधार इसी स्वरूप पर टिका हुआसत्य।मैं सूर्य (शिव ) तुम्हारा पिता और बुध, शुक्र, पृथ्वी व मंगल मेरी माया और तुम्हारी माताएँ हैं।क्या सूर्य व धरती ने किसी भी जीव-आत्मा में कभी भी कोई भेद किया ? प्रेम स्नेह ही मेरा धर्म है और यही तुमसे अपेक्षा करता हूँ।पृथ्वी पर बीते हुए इतिहास में सतयुग से कलयुग तक, एक ही मानव शरीर एैसा है जिसके ललाट पर ज्योति है।इसी स्वरूप द्वारा जीवन व्यतीत कर परमात्मा ने मानव को वेदों का ज्ञान प्रदान किया है जो मानव के लिए अत्यंत ही कल्याणकारी साबित हुआ है।वेदो शिवम शिवो वेदम।परमात्मा शिव के इसी स्वरूप द्वारा मानव शरीर को रुद्र से शिव बनने का ज्ञान प्राप्त होता है।शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है।शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है,तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है।वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं।गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी,वीतरागी हैं।
नंदी, क्षितिमूर्ति-सर्व, जलमूर्ति-भव, अग्निमूर्ति-रूद्र, वायुमूर्ति-उग्र, आकाशमूर्ति-भीमयजमानमूर्ति पशुपति चन्द्रमूर्ति-महादेव, सूर्यमूर्ति-ईशान, भृंगी, रिटी, टुंडी, श्रृंगी, नन्दिकेश्वर
ज्योतिर्लिंग |
स्थान |
पशुपतिनाथ |
नेपाल की राजधानी काठमांडू |
सोमनाथ |
सोमनाथ मंदिर, सौराष्ट्र क्षेत्र, गुजरात |
महाकालेश्वर |
श्रीमहाकाल, महाकालेश्वर, उज्जयिनी (उज्जैन) |
ॐकारेश्वर |
ॐकारेश्वर अथवा अमलेश्वर, ॐकारेश्वर, |
केदारनाथ |
केदारनाथ मन्दिर, रुद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड |
भीमाशंकर |
भीमाशंकर मंदिर, निकट पुणे, महाराष्ट्र |
विश्वनाथ |
काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
त्र्यम्बकेश्वर मन्दिर |
त्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर, नासिक, महाराष्ट्र |
रामेश्वरम |
रामेश्वरम मंदिर, रामनाथपुरम, तमिल नाडु |
घृष्णेश्वर |
घृष्णेश्वर मन्दिर, वेरुळ, औरंगाबाद, महाराष्ट्र |
बैद्यनाथ |
परळी वैजनाथ बीड महाराष्ट्र, देवघर, झारखंड |
नागेश्वर |
औंढा नागनाथ महाराष्ट्रनागेश्वर मन्दिर, द्वारका, गुजरात |
श्रीशैल |
श्रीमल्लिकार्जुन, श्रीशैलम (श्री सैलम) आंध्र प्रदेश |
शरीकेदार |
नेपाल कालान्जर बन खण्ड् |
रौला केदार |
नेपाल् कालान्जर बन खण्ड् |
ध्वज केदार |
नेपाल् कालान्जर बन खण्ड् |
अशिम केदार |
नेपाल कालान्जर बन खण्ड् |
पुरी भुमी के रूप मे शिब ज्योतिर्लिङ: कालान्जर |
यद्दपी पुरा ब्रह्माण्ड भागवान शिब का ज्योतिर्लिङ है फिर भि पुराणौने पृथिबी मे भागवानशिव के दो ज्योतिरलिङ पुरी भुमी के रूप मे है (१) कैलाश पर्बत् ( यह पुरा पर्बत एक ज्योतिर्लिङ है (२) कालन्जर पर्बत बनखण्ड ( यह पुरा पर्बत बनखण्ड दुसरा भुमी ज्योतिर्लिङ है |
सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं।शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं।उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है।वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं।ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए।शिव को बिल्वपत्र, धतूरे के पुष्प, प्रसाद मे भान्ग अति प्रिय हैं।एवम इनकी पूजा के लिये दूध, दही, घी, शकर, शहद इन पांच अमृत जिसे पन्चामृत कहा जाता है,पूजन में इनका उपयोग करें।एवम पन्चामृत से स्नान करायें इसके बाद इत्र चढ़ा कर जनेऊ पहनायें अन्त मे भांग का प्रसाद चढाए।शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबद्ध हैं।चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं।महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है ।
यह बनखण्ड कत्त्युरी राज्य का प्रमुख तिर्थस्थल था इस बनखण्डको 13वी सदी तक कालान्जर कहते थे यहाँ भागवान का मन्दिर है, केदार के पुजारी यहाँ गौ को चराने भि ले जाया कर्ते थे इसिलिए 18 सदी मे आकर इसका नाम गौलेक्=गवाल्लेक भि पड्गया, यहाँ भागवान का मन्दिर है, आदी शन्काराचार्य ने यहाँ आकर 7 दिन तक तपश्या कि थि और उन्हौने इस बनखण्ड को शिवपुराणमे बर्णित कालान्जर होनेकी पुस्टी भि कि थि, तब से 12-13 सदी तक इसे कालान्जर कहा जाता था, बाद मे जब कत्युरी राजबन्श कमजोर हुवा और यह भुभाग मे चन्द राजा आए, चन्दौ ने सारे महत्वपुर्ण स्थलौका नाम परिवर्तन किया, जहाँ उन्हौने राज्धानी बनाइ वो भि कालान्जर का हि तल था, उस्को उन्हौने बायोत्तर नामाकरण कर्दिय, बाद्मे 17वी सदी मे गुर्खौ ने इस का नाम बदलकर बैतडी कर्दिया, और सारा इतिहास छिन्न भिन्न हो गया, कालान्जर मे पुजा कर्ना निशेध किया गया और वहाँ केबल गाय चराने वाले ग्वाले हि जाने लगे, पुरे मन्दिर के रूप मे अवस्थित बनखण्ड को गौचरान मे परिणत कर्दिया पहले चन्द राजावौने और बादमे पुर्ण रुपसे गुर्खौ ने, और बाद मे 18वी सदी, अङ्रेज्-नेपाल के युद्ध के समय तक इस्का नाम कालोन्जर हो गया, अङ्रेज नेपाल के युद्ध के बाद गुर्खौ के दबाब मे यिसका नाम गोल्लेक बनादिया गया और आज इसे ग्वाल्लेक के नाम से जाना जाता है, यह शिब पुराणौमे बर्णित कालन्जर पर्बत हि है, बहुत सारे अध्एता और शोध कर्ने वाले भी इस बात कि पुस्टी कर चुके है
हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है
-
रूद्र-रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।
-
पशुपतिनाथ-भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं
-
अर्धनारीश्वर- शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
-
महादेव-महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।
-
भोला-भोले का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वाला। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
-
लिंगम-पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
-
नटराज-नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी है।शिव शब्द का अर्थ शुभ, स्वाभिमानिक, अनुग्रहशील, सौम्य, दयालु, उदार, मैत्रीपूर्ण होता है।लोक व्युत्पत्ति में शिव की जड़ शि है जिसका अर्थ है जिन में सभी चीजें व्यापक है और “वा” इसका अर्थ है अनुग्रह के अवतार”।ऋग वेद में शिव शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है, रुद्रा सहित कई ऋग्वेदिक देवताओं के लिए एक विशेषण के रूप में।शिव शब्द ने मुक्ति, अंतिम मुक्ति और शुभ व्यक्ति” का भी अर्थ दिया है।इस विशेषण का प्रयोग विशेष रूप से साहित्य के वैदिक परतों में कई देवताओं को संबोधित करने हेतु किया गया है।यह शब्द वैदिक रुद्रा-शिव से महाकाव्यों और पुराणों में नाम शिव के रूप में विकसित हुआ, एक शुभ देवता के रूप में, जो निर्माता, प्रजनक और संहारक होता है।
प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है,लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है।इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है,क्योंकि इसी दिन अर्धरात्रि के समय भगवान शिव लिंगरूप में प्रकट हुए थे।
माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ॥
भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए।कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं।नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है।जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है।ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया।फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं।यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं।मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है।बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है।ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है।यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है।भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत:इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।
शिवमहिम्न स्तोत्र…
शिवमहिम्न स्तोत्र (संस्कृत:श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रम्) शिव महिम्न का अभिप्राय शिव की महिमा से है।यह एक अत्यंत ही मनोहर शिव स्तोत्र है।शिवभक्त श्री गंधर्वराज पुष्पदंत द्वारा अगाध प्रेमभाव से ओतप्रोत यह शिवस्तोत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है।महिम्नस्तोत्र में कहा गया है-स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण।हर अर्थात् शिव तभी तो शिव तथा विष्णु दोनो एक साथ हो तो हरिहर कहलाते हैं।इस पंक्ति का अर्थ है कि हर प्रकार के पापों को समन करने वाला यह स्तोत्र भगवान शिव को अतिप्रिय है।यह स्तोत्र साक्षात् शिवस्वरूप है तथा शिवभक्तों के मध्य अत्यंत प्रचलित हैं।इस स्तोत्र के निर्माण पर एक अत्यंत ही रोचक कथा प्रचलित है।एक समय की बात है जब चित्ररथ नामक शिवभक्त राजा हुए जिन्होंने अपने राज्य में कई प्रकार के पुष्पों का एक उद्यान बनवाया, वह शिवपूजन के लिये पुष्प वहीं से ले जाते थे।महान् शिवभक्त गंधर्व पुष्पदंत देवराज इंद्र की सभा के मुख्य गायक थे, एक दिन उनकी नजर उस सुंदर उद्यान पर पड़ी और वह मंत्रमुग्ध हो गए, उन्होंने उसी उद्यान से पुष्प तोड़े तथा प्रस्थान किया।मायावी गंधर्व पर किसी की नजर नहीं पड़ी पर जब राजा को इसका पता चला तो उसने चोर को पकड़ने के कई असफल प्रयास किए।राजा को एक तरकीब सूझी उसने शिव पर अर्पित पुष्प आदि उद्यान के पथ पर बिछा दिया।अगले दिन जब पुष्पदंत वहाँ आए तो उनकी नजर उन शिव निर्माल्य वस्तुओं पर नहीं पड़ी जिससे उनके पद ही उनपर पड़ गए।गंधर्वराज को शिव के क्रोध का भाजन करना पड़ा तथा उनकी सारी शक्तियाँ समाप्त हो गईं।जब उनको अपनी भूल का आभास हुआ तब उन्होंने एक शिवलिंग का निर्माण कर उसकी पूजा की तथा प्रार्थना के लिये कुछ छंद बोले, शिव प्रसन्न हुए, उनकी शक्तियाँ लौटा दी तथा यह आशीर्वाद दिया कि उनके द्वारा उच्चारित छंद समूह भविष्य में शिवमहिम्नस्तोत्र के नाम से प्रचलित होगा तथा उनके हृदय में स्थान प्राप्त करेगा और पुष्पदंत द्वारा बनाया गया शिवलिंग पुष्पदंतेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध होगा जिसके दर्शन मात्र से पाप कटेगा।इस प्रकार शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना हुई।
शिवमहिम्न स्तोत्र में 43 श्लाेक हैं, श्लाेक तथा उनके भावार्थ निम्नांकित हैं
पुष्पदन्त उवाच-
महिम्नःपारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।
अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।
भावार्थ:पुष्पदंत कहते हैं कि हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती ? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी।मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है।इसलिए हे भोलेनाथ।आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।
अतीतःपंथानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः।अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः।पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।।
भावार्थ:आपकी व्याख्या न तो मन, न ही वचन द्वारा संभव है।आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा ‘नेति नेति’ का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं।आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते।ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है।
मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।
मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।
भावार्थ:हे वेद और भाषा के सृजक! आपने अमृतमय वेदोंकी रचना की है। इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता। मै भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।
तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्।त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।।
अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं।विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।।
भावार्थ:आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है।इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है।सत्व, रज और तम।वेदों में इनके बारे में वर्णन किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है।ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, किन्तु यथार्थ से वो मुँह नहीं मोड़ सकते।
किमीहःकिंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं।किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।।
अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः।कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।।
भावार्थ:मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन वस्तुओं से उसे बनाया गया इत्यादि।उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है।सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित बुद्धि से उसे व्यक्त करना असंभव है।
अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।।
अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो।यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।।
भावार्थ:हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक- भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्य) का निर्माण क्या संभव है ? इस जगत का कोई रचयिता न हो, ऐसा क्या संभव है ?आपके अलावा इस सृष्टि का निर्माण भला कौन कर सकता है ? आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है।
त्रयी साङ्ख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।।
भावार्थ:हे परमपिता।आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है-सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि।लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है।मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, आप तक पहुंचते है।सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।
महोक्षःखट्वाङ्गं परशुरजिनं भस्म फणिनः।कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।
सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।न हि स्वात्मारामं विष यमृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।।
भावार्थ:आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ कुल्हाडी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी)! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता।
ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं।परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।
समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव।स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।।
भावार्थ: इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं।कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है।लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति मे आनंद पाते है।मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ये कहना धृष्टता लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं।
तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिञ्चिर्हरिरधः।परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।।
ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्।स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।
भावार्थ:जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया।ब्रह्मा और विष्णु-दोनों नें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो सफल न हो सके।आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया।सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों एसा कभी हो सकता है भला ?
अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं।दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।।
शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः।स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।।
भावार्थ:आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये। जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया। इस वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ भक्ति का नतीजा है।
अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं।बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।
अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि।प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।।
भावार्थ:आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाढ़ देना चाहा।जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठीं।उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला।सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।
यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं।अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।
न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।
भावार्थ:आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।
अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।
स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भङ्ग-व्यसनिनः।। १४।।
भावार्थ:जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था।आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया।विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये।परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढाता है।जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।
असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।
स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।स्मरःस्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।।
भावार्थ:कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हों।पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भष्म कर दिया।श्रेष्ठ जनो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।
मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं।पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।
मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।।
भावार्थ:जब संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती है, आपके पदप्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं।आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से वैंकुंठ में खलबली मच जाती है।हे महादेव, महाकाल आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।
वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः।प्रवाहो वारां यःपृषतलघुदृष्टःशिरसि ते।।
जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।।
भावार्थ:गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है।बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है।ये आपके दिव्य और महिमावान स्वरूप का ही परिचायक है।
रथःक्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।रथाङ्गे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिःशर इति।।
दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।विधेयैःक्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राःप्रभुधियः।। १८।।
भावार्थ:आपने (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को दो पहिये मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णुजी का बाण लिया।हे शम्भू ! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता ? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।
हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।।
गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।।
भावार्थ:जब भगवान विष्णु ने आपकी सहस्र कमलों (एवं सहस्र नामों) द्वारा पूजा प्रारम्भ की तो उन्होंने एक कमल कम पाया।तब भक्ति भाव से विष्णुजी ने अपनी एक आँख को कमल के स्थान पर अर्पित कर दिया।उनकी इसी अदम्य भक्ति ने सुदर्शन चक्र का स्वरूप धारण कर लिया जिसे भगवान विष्णु संसार रक्षार्थ उपयोग करते हैं।हे प्रभु, आप तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) की रक्षा के लिए सदैव जाग्रत रहते हो।
क्रतौ सुप्ते जाग्रत् त्वमसि फलयोगे क्रतुमतां।क्व कर्म प्रध्वस्तं फलति पुरुषाराधनमृते।।
अतस्त्वां सम्प्रेक्ष्य क्रतुषु फलदान-प्रतिभुवं।श्रुतौ श्रद्धां बध्वा दृढपरिकरः कर्मसु जनः।। २०।।
भावार्थ:यज्ञ की समाप्ति होने पर आप यज्ञकर्ता को उसका फल देते हो।आपकी उपासना और श्रद्धा बिना किया गया कोई कर्म फलदायक नही होता।यही वजह है कि वेदों मे श्रद्धा रखके और आपको फलदाता मानकर हर कोई अपने कार्यो का शुभारंभ करते है।
क्रियादक्षो दक्षःक्रतुपतिरधीशस्तनुभृतां।ऋषीणामार्त्विज्यं शरणद सदस्याः सुर-गणाः।।
क्रतुभ्रंशस्त्वत्तःक्रतुफल-विधान-व्यसनिनः।ध्रुवं कर्तुं श्रद्धा विधुरमभिचाराय हि मखाः।। २१।।
भावार्थ:यद्यपि आपने यज्ञ कर्म और फल का विधान बनाया है तद्यपि जो यज्ञ शुद्ध विचारों और कर्मो से प्रेप्रित न हो और आपकी अवहेलना करने वाला हो उसका परिणाम कदाचित विपरीत और अहितकर ही होता है इसीलिए दक्षप्रजापति के महायज्ञ यज्ञ को जिसमें स्वयं ब्रह्मा तथा अनेकानेक देवगण तथा ऋषि-मुनि सम्मिलित हुए, आपने नष्ट कर दिया क्योंकि उसमें आपका सम्मान नहीं किया गया।सचमुच, भक्ति के बिना किये गये यज्ञ किसी भी यज्ञकर्ता के लिए हानिकारक सिद्ध होते है।
प्रजानाथं नाथ प्रसभमभिकं स्वां दुहितरं।गतं रोहिद् भूतां रिरमयिषुमृष्यस्य वपुषा।।
धनुष्पाणेर्यातं दिवमपि सपत्राकृतममु।त्रसन्तं तेऽद्यापि त्यजति न मृगव्याधरभसः।। २२।।
भावार्थ:एक बार प्रजापिता ब्रह्मा अपनी पुत्री पर ही मोहित हो गए।जब उनकी पुत्री ने हिरनी का स्वरुप धारण कर भागने की कोशिश की तो कामातुर ब्रह्मा भी हिरन भेष में उसका पीछा करने लगे।हे शंकर ! तब आप ने व्याघ्र स्वरूप में धनुष-बाण ले ब्रह्मा को मार भगाया।आपके रौद्र रूप से भयभीत ब्रह्मा आकाश दिशा में अदृश्य अवश्य हुए परन्तु आज भी वह आपसे भयभीत हैं।
स्वलावण्याशंसा धृतधनुषमह्नाय तृणवत्।पुरःप्लुष्टं दृष्ट्वा पुरमथन पुष्पायुधमपि।।
यदि स्त्रैणं देवी यमनिरत-देहार्ध-घटनात्।अवैति त्वामद्धा बत वरद मुग्धा युवतयः।। २३।।
भावार्थ:जब कामदेव ने आपकी तपश्चर्या में बाधा डालनी चाही और आपके मन में पार्वती के प्रति मोह उत्पन्न करने की कोशिश की, तब आपने कामदेव को तृणवत् भस्म कर दिया।अगर तत्पश्चात् भी पार्वती ये समझती है कि आप उन पर मुग्ध है क्योंकि आपके शरीर का आधा हिस्सा उनका है, तो ये उनका भ्रम होगा। सच पूछो तो हर युवती अपनी सुंदरता पे मुग्ध होती है।
श्मशानेष्वाक्रीडा स्मरहर पिशाचाःसहचराः।चिता-भस्मालेपःस्रगपि नृकरोटी-परिकरः।।
अमङ्गल्यं शीलं तव भवतु नामैवमखिलं।तथापि स्मर्तॄणां वरद परमं मङ्गलमसि।। २४।।
भावार्थ:आप श्मशान में रमण करते हैं, भूत-प्रेत आपके मित्र हैं, आप चिता भष्म का लेप करते हैं तथा मुंडमाल धारण करते हैं।ये सारे गुण ही अशुभ एवं भयावह जान पड़ते हैं।तब भी हे श्मशान निवासी ! उन भक्तों जो आपका स्मरण करते है, आप सदैव शुभ और मंगल करते है।
मनःप्रत्यक् चित्ते सविधमविधायात्त-मरुतः।प्रहृष्यद्रोमाणःप्रमद-सलिलोत्सङ्गति-दृशः।।
यदालोक्याह्लादं ह्रद इव निमज्यामृतमये।दधत्यन्तस्तत्त्वं किमपि यमिनस्तत् किल भवान्।। २५।।
भावार्थ:आपको पाने के लिए योगी क्या क्या नहीं करते ? बस्ती से दूर, एकांत में आसन जमाकर, शास्त्रों में बताई गई विधि के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करने की कठिन साधना करते है और उसमें सफल होने पर हर्षाश्रु बहाते है।सचमुच, सभी प्रकार की साधना का अंतिम लक्ष्य आपको पाना ही है।
त्वमर्कस्त्वं सोमस्त्वमसि पवनस्त्वं हुतवहः।त्वमापस्त्वं व्योम त्वमु धरणिरात्मा त्वमिति च।।
परिच्छिन्नामेवं त्वयि परिणता बिभ्रति गिरं।न विद्मस्तत्तत्त्वं वयमिह तु यत् त्वं न भवसि।। २६।।
भावार्थ:आप ही सूर्य, चन्द्र, धरती, आकाश, अग्नि, जल एवं वायु हैं।आप ही आत्मा भी हैं।हे देव !! मुझे ऐसा कुछ भी ज्ञात नहीं जो आप न हों।
त्रयीं तिस्रो वृत्तीस्त्रिभुवनमथो त्रीनपि सुरान्।अकाराद्यैर्वर्णैस्त्रिभिरभिदधत् तीर्णविकृति।।
तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः।समस्त-व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। २७।।
भावार्थ:(हे सर्वेश्वर ! ॐ शब्द अ, ऊ, म से बना है।ये तीन शब्द तीन लोक स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल; तीन देव-ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा तीन अवस्था-स्वप्न, जागृति और सुषुप्ति के द्योतक है।लेकिन जब पूरी तरह से ॐ कार का ध्वनि निकलता है तो ये आपके तुरीय पद (तीनों से पर) को अभिव्यक्त करता है।
भवःशर्वो रुद्रःपशुपतिरथोग्रःसहमहान्।तथा भीमेशानाविति यदभिधानाष्टकमिदम्।।
अमुष्मिन् प्रत्येकं प्रविचरति देव श्रुतिरपि।प्रियायास्मैधाम्ने प्रणिहित-नमस्योऽस्मि भवते।। २८।।
भावार्थ:वेद एवं देवगण आपकी इन आठ नामों से वंदना करते हैं भव, सर्व, रूद्र, पशुपति, उग्र, महादेव, भीम, एवं इशान।हे शम्भू महाकाल ! मैं भी आपकी इन नामों की भावपूर्वक स्तुति करता हूँ।
नमो नेदिष्ठाय प्रियदव दविष्ठाय च नमः।नमःक्षोदिष्ठाय स्मरहर महिष्ठाय च नमः।।
नमो वर्षिष्ठाय त्रिनयन यविष्ठाय च नमः।नमःसर्वस्मै ते तदिदमतिसर्वाय च नमः।। २९।।
भावार्थ:आप सब से दूर हैं फिर भी सब के पास है।हे कामदेव को भस्म करनेवाले प्रभु ! आप अति सूक्ष्म है फिर भी विराट है।हे तीन नेत्रोंवाले प्रभु ! आप वृद्ध है और युवा भी है।आप सब में है फिर भी सब से पर है। आपको मेरा प्रणाम है।
बहुल-रजसे विश्वोत्पत्तौ, भवाय नमो नमः।प्रबल-तमसे तत् संहारे, हराय नमो नमः।।
जन-सुखकृते सत्त्वोद्रिक्तौ, मृडाय नमो नमः।प्रमहसि पदे निस्त्रैगुण्ये, शिवाय नमो नमः।। ३०।।
भावार्थ:मैं आपको रजोगुण से युक्त सृजनकर्ता जान कर आपके ब्रह्मा स्वरूप को नमन करता हूँ।तमोगुण को धारण करके आप जगत का संहार करते हो, आपके उस रुद्र स्वरूप को मैं नमन करता हूँ।सत्वगुण धारण करके आप लोगों के सुख के लिए कार्य करते हो, आपके उस विष्णु स्वरूप को नमस्कार है।इन तीनों गुणों से पर आपका त्रिगुणातीत स्वरूप है, आपके उस शिव स्वरूप को मेरा नमस्कार है।
कृश-परिणति-चेतःक्लेशवश्यं क्व चेदं।क्व च तव गुण-सीमोल्लङ्घिनी शश्वदृद्धिः।।
इति चकितममन्दीकृत्य मां भक्तिराधाद्।वरद चरणयोस्ते वाक्य-पुष्पोपहारम्।। ३१।।
भावार्थ:मेरा मन शोक, मोह और दुःख से संतप्त तथा क्लेश से भरा पड़ा है।मैं दुविधा में हूँ कि ऐसे भ्रमित मन से मैं आपके दिव्य और अपरंपार महिमा का गान कैसे कर पाउँगा ? फिर भी आपके प्रति मेरे मन में जो भाव और भक्ति है उसे अभिव्यक्त किये बिना मैं नहीं रह सकता।अतःये स्तुति की माला आपके चरणों में अर्पित करता हूँ।
असित-गिरि-समं स्यात् कज्जलं सिन्धु-पात्रे। सुर-तरुवर-शाखा लेखनी पत्रमुर्वी।।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं।तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।। ३२।।
भावार्थ:यदि समुद्र को दवात बनाया जाय, उसमें काले पर्वत की स्याही डाली जाय, कल्पवृक्ष के पेड की शाखा को लेखनी बनाकर और पृथ्वी को कागज़ बनाकर स्वयं ज्ञान स्वरूपा माँ सरस्वती दिनरात आपके गुणों का वर्णन करें तो भी आप के गुणों की पूर्णतया व्याख्या करना संभव नहीं है।
असुर-सुर-मुनीन्द्रैरर्चितस्येन्दु-मौलेः। ग्रथित-गुणमहिम्नो निर्गुणस्येश्वरस्य।।
सकल-गण-वरिष्ठःपुष्पदन्ताभिधानः। रुचिरमलघुवृत्तैःस्तोत्रमेतच्चकार।। ३३।।
भावार्थ:आप सुर, असुर और मुनियों के पूजनीय है, आपने मस्तक पर चंद्र को धारण किया है और आप सभी गुणों से परे है।आपकी इसी दिव्य महिमा से प्रभावित होकर मैं, पुष्पंदत गंधर्व, आपकी स्तुति करता हूँ।
अहरहरनवद्यं धूर्जटेःस्तोत्रमेतत्। पठति परमभक्त्या शुद्ध-चित्तःपुमान् यः।।
स भवति शिवलोके रुद्रतुल्यस्तथाऽत्र।प्रचुरतर-धनायुःपुत्रवान् कीर्तिमांश्च।। ३४।।
भावार्थ:पवित्र और भक्तिभावपूर्ण हृदय से जो मनुष्य इस स्तोत्र का नित्य पाठ करेगा, तो वो पृथ्वीलोक में अपनी इच्छा के अनुसार धन, पुत्र, आयुष्य और कीर्ति को प्राप्त करेगा।इतना ही नहीं, देहत्याग के पश्चात् वो शिवलोक में गति पाकर शिवतुल्य शांति का अनुभव करेगा।शिवमहिम्न स्तोत्र के पठन से उसकी सभी लौकिक व पारलौकिक कामनाएँ पूर्ण होंगी।
महेशान्नापरो देवो महिम्नो नापरा स्तुतिः। अघोरान्नापरो मन्त्रो नास्ति तत्त्वं गुरोः परम्।। ३५।।
दीक्षा दानं तपस्तीर्थं ज्ञानं यागादिकाःक्रियाः।महिम्नस्तव पाठस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। ३६।।
भावार्थ:शिव से श्रेष्ठ कोइ देव नहीं, शिवमहिम्न स्तोत्र से श्रेष्ठ कोइ स्तोत्र नहीं है, भगवान शंकर के नाम से अधिक महिमावान कोई मंत्र नहीं है और ना ही गुरु से बढकर कोई पूजनीय तत्व।शिवनहिम्न स्तोत्र का पाठ करने से जो फल मिलता है वो दीक्षा या दान देने से, तप करने से, तीर्थाटन करने से, शास्त्रों का ज्ञान पाने से तथा यज्ञ करने से कहीं अधिक है।
कुसुमदशन-नामा सर्व-गन्धर्व-राजः।शशिधरवर-मौलेर्देवदेवस्य दासः।।
स खलु निज-महिम्नो भ्रष्ट एवास्य रोषात्।स्तवनमिदमकार्षीद् दिव्य-दिव्यं महिम्नः।। ३७।।
भावार्थ:पुष्पदन्त गंधर्वों का राजा, चन्द्रमौलेश्वर शिव जी का परम भक्त था।मगर भगवान शिव के क्रोध की वजह से वह अपने स्थान से च्युत हुआ।महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने ये महिम्नस्तोत्र की रचना की है।
सुरगुरुमभिपूज्य स्वर्ग-मोक्षैक-हेतुं।पठति यदि मनुष्यःप्राञ्जलिर्नान्य-चेताः।।
व्रजति शिव-समीपं किन्नरैःस्तूयमानः।स्तवनमिदममोघं पुष्पदन्तप्रणीतम्।। ३८।।
भावार्थ:जो मनुष्य अपने दोनों हाथों को जोड़कर, भक्तिभावपूर्ण, इस स्तोत्र का पठन करेगा, तो वह स्वर्ग-मुक्ति देनेवाले, देवता और मुनिओं के पूज्य तथा किन्नरों के प्रिय ऐसे भगवान शंकर के पास अवश्य जायेगा।पुष्पदंत द्वारा रचित यह स्तोत्र अमोघ और निश्चित फल देनेवाला है।
आसमाप्तमिदं स्तोत्रं पुण्यं गन्धर्व-भाषितम्।अनौपम्यं मनोहारि सर्वमीश्वरवर्णनम्।। ३९।।
इत्येषा वाङ्मयी पूजा श्रीमच्छङ्कर-पादयोः।अर्पिता तेन देवेशः प्रीयतां मे सदाशिवः।। ४०।।
भावार्थ:पुष्पदंत गन्धर्व द्वारा रचित, भगवान शिव के गुणानुवाद से भरा, मनमोहक, अनुपम और पुण्यप्रदायक स्तोत्र यहाँ पर संपूर्ण होता है।वाणी के माध्यम से की गई मेरी यह पूजा आपके चरणकमलों में सादर अर्पित है।कृपया इसका स्वीकार करें और आपकी प्रसन्नता मुझ पर बनाये रखें।
तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वर। यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।। ४१।।
एककालं द्विकालं वा त्रिकालं यः पठेन्नरः। सर्वपाप-विनिर्मुक्तः शिव लोके महीयते।। ४२।।
भावार्थ:हे शिव ! मैं आपके वास्तविक स्वरुप् को नहीं जानता। लेकिन आप जैसे भी है, जो भी है, मैं आपको प्रणाम करता हूँ।जो इस स्तोत्र का दिन में एक, दो या तीन बार पाठ करता है वह सर्व प्रकार के पाप से मुक्त हो जाता है तथा शिव लोक को प्राप्त करता है।
श्री पुष्पदन्त-मुख-पङ्कज-निर्गतेन।स्तोत्रेण किल्बिष-हरेण हर-प्रियेण।।
कण्ठस्थितेन पठितेन समाहितेन।सुप्रीणितो भवति भूतपतिर्महेशः।। ४३।।
भावार्थ:पुष्पदंत के कमलरूपी मुख से उदित, पाप का नाश करनेवाली, भगवान शंकर की अतिप्रिय यह स्तुति का जो पठन करेगा, गान करेगा या उसे सिर्फ अपने स्थान में रखेगा, तो भोलेनाथ शिव उन पर अवश्य प्रसन्न होंगे।
।। इति श्री पुष्पदन्त विरचितं शिवमहिम्नःस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।।
मान्यता है कि रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले चलने को उद्यत हुआ उस समय अपनी शक्ति पर पूर्ण अहंकार भाव में था ।भोलेबाबा को उसका यह अहं पसंद नही आया तो भोले बाबा ने अपने अंगूठे से तनिक सा जो दबाया तो कैलाश फिर जहां था वहीं अवस्थित हो गया।शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह आर्तनाद कर उठा-शंकर शंकर-अर्थात क्षमा करिए, क्षमा करिए और स्तुति करने लग गया।जो कालांतर में शिव तांडव स्त्रोत्र कहलाया।इस स्रोत की भाषा अनुपम और जटिल है, पर महाविद्वान रावण ने इसे कुछ पलो में ही बना दिया था।शिव स्तुति और प्रसन्नता में यह स्रोत राम बाण है।शिवताण्डव स्तोत्र स्तोत्रकाव्य में अत्यन्त लोकप्रिय है।यह पञ्चचामर छन्द में आबद्ध है। इसकी अनुप्रास और समास बहुल भाषा संगीतमय ध्वनि और प्रवाह के कारण शिवभक्तों में प्रचलित है। सुन्दर भाषा एवं काव्य-शैली के कारण यह स्तोत्र विशेषकर शिवस्तोत्रों में विशिष्ट स्थान रखता है।
शिव ताण्डव स्तोत्र…
- जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्ग मालिकाम्।
- डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम् ॥१॥
- जटाकटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
- धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥
- धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुर स्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।
- कृपाकटाक्षधोरणी निरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
- जटाभुजंगपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रव प्रलिप्तदिग्व धूमुखे।
- मदांधसिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूत भर्तरि ॥४॥
- सहस्रलोचन प्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरां घ्रिपीठभूः।
- भुजंगराजमालया निबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥
- ललाटचत्वरज्वल द्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंच सायकंनम न्निलिंपनायकम्।
- सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥
- करालभालपट्टिका धगद्धगद्धगज्ज्वल द्धनंजया धरीकृतप्रचंड पंचसायके।
- धराधरेंद्रनंदिनी कुचाग्रचित्रपत्र कप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
- नवीनमेघमंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर त्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।
- निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥
- प्रफुल्लनीलपंकज प्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्।
- स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥
- अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्।
- स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥
- जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुरद्ध गद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।
- धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनन्मृदंग तुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥
- दृषद्विचित्रतल्पयो र्भुजंगमौक्तिकमस्र जोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
- तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥
- कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्।
- विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥
- निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।
- तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥
- प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना
- विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥
- इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्।
- हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥
- पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।
- तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
॥ इति रावणकृतं शिव ताण्डव भ्रमन्निलिंपनिर्झरी संपूर्णम् ॥
जटाटवी-गलज्जल-प्रवाह-पावित-स्थलेगलेऽव-लम्ब्य-लम्बितां-भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम् डमड्डमड्डमड्डम-न्निनादव-ड्डमर्वयं चकार-चण्ड्ताण्डवं-तनोतु-नः शिवःशिवम्…१ !
जिन शिव जी की सघन,वनरूपी जटा से प्रवाहित हो गंगा जी की धारायं उनके कंठ को प्रक्षालित होती हैं, जिनके गले में बडे एवं लम्बे सर्पों की मालाएं लटक रहीं हैं,तथा जो शिव जी डम-डम डमरू बजाकर प्रचण्ड ताण्डव करते हैं,वे शिवजी हमारा कल्याण करें।
जटा-कटा-हसं-भ्रमभ्रमन्नि-लिम्प-निर्झरी-विलोलवी-चिवल्लरी-विराजमान-मूर्धनिधगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिःप्रतिक्षणं मम..२ !
जिन शिव जी के जटाओं में अतिवेग से विलास पुर्वक भ्रमण कर रही देवी गंगा की लहरे उनके शिश पर लहरा रहीं हैं,जिनके मस्तक पर अग्नि की प्रचण्ड ज्वालायें धधक-धधक करके प्रज्वलित हो रहीं हैं,उन बाल चंद्रमा से विभूषित शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिक्षण बढता रहे।
धरा-धरेन्द्र-नंदिनीविलास-बन्धु-बन्धुरस्फुर-द्दिगन्त-सन्ततिप्रमोद-मान-मानसे,कृपा-कटाक्ष-धोरणी-निरुद्ध-दुर्धरापदि क्वचि-द्दिगम्बरे-मनो विनोदमेतु वस्तुनि..३ !
जो पर्वतराजसुता (पार्वती जी) केअ विलासमय रमणिय कटाक्षों में परम आनन्दित चित्त रहते हैं, जिनके मस्तक में सम्पूर्ण सृष्टि एवं प्राणीगण वास करते हैं, तथा जिनके कृपादृष्टि मात्र से भक्तों की समस्त विपत्तियां दूर हो जाती हैं,ऐसे दिगम्बर (आकाश को वस्त्र सामान धारण करने वाले) शिवजी की आराधना से मेरा चित्त सर्वदा आन्दित रहे।
जटा-भुजङ्ग-पिङ्गल-स्फुरत्फणा-मणिप्रभाकदम्ब-कुङ्कुम-द्रवप्रलिप्त-दिग्व-धूमुखेमदान्ध-सिन्धुर-स्फुरत्त्व-गुत्तरी-यमे-दुरे मनो विनोदमद्भुतं-बिभर्तु-भूतभर्तरि.. ४ !
मैं उन शिवजी की भक्ति में आन्दित रहूँ जो सभी प्राणियों की के आधार एवं रक्षक हैं, जिनके जाटाओं में लिपटे सर्पों के फण की मणियों के प्रकाश पीले वर्ण प्रभा-समुहरूपकेसर के कातिं से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं और जो गजचर्म से विभुषित हैं।
सहस्रलोचनप्रभृत्य-शेष-लेख-शेखर प्रसून-धूलि-धोरणी-विधू-सराङ्घ्रि-पीठभूः भुजङ्गराज-मालया-निबद्ध-जाटजूटक:श्रियै-चिराय-जायतां चकोर-बन्धु-शेखरः…५ !
जिन शिव जी का चरण इन्द्र-विष्णु आदि देवताओं के मस्तक के पुष्पों के धूल से रंजित हैं (जिन्हे देवतागण अपने सर के पुष्प अर्पन करते हैं) जिनकी जटा पर लाल सर्प विराजमान है, वो चन्द्रशेखर हमें चिरकाल के लिए सम्पदा दें।
ललाट-चत्वर-ज्वलद्धनञ्जय-स्फुलिङ्गभा-निपीत-पञ्च-सायकं-नमन्नि-लिम्प-नायकम्सुधा-मयूख-लेखया-विराजमान-शेखरं महाकपालि-सम्पदे-शिरो-जटाल-मस्तुनः..६ !
जिन शिव जी ने इन्द्रादि देवताओं का गर्व दहन करते हुए, कामदेव को अपने विशाल मस्तक की अग्नि ज्वाला से भस्म कर दिया, तथा जो सभि देवों द्वारा पुज्य हैं, तथा चन्द्रमा और गंगा द्वारा सुशोभित हैं, वे मुझे सिद्दी प्रदान करें।
कराल-भाल-पट्टिका-धगद्धगद्धग-ज्ज्वलद्धनञ्ज-याहुतीकृत-प्रचण्डपञ्च-सायकेधरा-धरेन्द्र-नन्दिनी-कुचाग्रचित्र-पत्रक -प्रकल्प-नैकशिल्पिनि-त्रिलोचने-रतिर्मम…७ !
जिनके मस्तक से धक-धक करती प्रचण्ड ज्वाला ने कामदेव को भस्म कर दिया तथा जो शिव पार्वती जी के स्तन के अग्र भाग पर चित्रकारी करने में अति चतुर है ( यहाँ पार्वती प्रकृति हैं, तथा चित्रकारी सृजन है), उन शिव जी में मेरी प्रीति अटल हो।
नवीन-मेघ-मण्डली-निरुद्ध-दुर्धर-स्फुरत्कुहू-निशी-थिनी-तमःप्रबन्ध-बद्ध-कन्धरःनिलिम्प-निर्झरी-धरस्त-नोतु कृत्ति-सिन्धुरःकला-निधान-बन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः…८ !
जिनका कण्ठ नवीन मेंघों की घटाओं से परिपूर्ण आमवस्या की रात्रि के सामान काला है, जो कि गज-चर्म, गंगा एवं बाल-चन्द्र द्वारा शोभायमान हैं तथा जो कि जगत का बोझ धारण करने वाले हैं, वे शिव जी हमे सभि प्रकार की सम्पनता प्रदान करें।
प्रफुल्ल-नीलपङ्कज-प्रपञ्च-कालिमप्रभा-वलम्बि-कण्ठ-कन्दली-रुचिप्रबद्ध-कन्धरम्स्म,रच्छिदंपुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतक-च्छिदं भजे…९ !
जिनका कण्ठ और कन्धा पूर्ण खिले हुए नीलकमल की फैली हुई सुन्दर श्याम प्रभा से विभुषित है, जो कामदेव और त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दु:खो6 के काटने वाले, दक्षयज्ञ विनाशक, गजासुर एवं अन्धकासुर के संहारक हैं तथा जो मृत्यू को वश में करने वाले हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ
अखर्वसर्व-मङ्ग-लाकला-कदंबमञ्जरीरस-प्रवाह-माधुरीविजृंभणा-मधुव्रतम्स्म,रान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्त-कान्ध-कान्तकं तमन्तकान्तकं भजे…१० !
जो कल्यानमय, अविनाशि, समस्त कलाओं के रस का अस्वादन करने वाले हैं, जो कामदेव को भस्म करने वाले हैं, त्रिपुरासुर, गजासुर, अन्धकासुर के सहांरक, दक्षयज्ञविध्वसंक तथा स्वयं यमराज के लिए भी यमस्वरूप हैं, मैं उन शिव जी को भजता हूँ।
जयत्व-दभ्र-विभ्र-म-भ्रमद्भुजङ्ग-मश्वस-द्विनिर्गमत्क्रम-स्फुरत्कराल-भाल-हव्यवाट् धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्ग-तुङ्ग-मङ्गल ध्वनि-क्रम-प्रवर्तित प्रचण्डताण्डवःशिवः…११ !
अतयंत वेग से भ्रमण कर रहे सर्पों के फूफकार से क्रमश: ललाट में बढी हूई प्रचंण अग्नि के मध्य मृदंग की मंगलकारी उच्च धिम-धिम की ध्वनि के साथ ताण्डव नृत्य में लीन शिव जी सर्व प्रकार सुशोभित हो रहे हैं।
दृष-द्विचित्र-तल्पयोर्भुजङ्ग-मौक्ति-कस्रजोर्-गरिष्ठरत्नलोष्ठयोःसुहृद्वि-पक्षपक्षयोःतृष्णार-विन्द-चक्षुषोःप्रजा-मही-महेन्द्रयोःसमप्रवृतिकःकदा सदाशिवं भजे…१२ !
कठोर पत्थर एवं कोमल शय्या, सर्प एवं मोतियों की मालाओं, बहुमूल्य रत्न एवं मिट्टी के टूकडों, शत्रू एवं मित्रों, राजाओं तथा प्रजाओं, तिनकों तथा कमलों पर सामान दृष्टि रखने वाले शिव को मैं भजता हूँ।
कदा निलिम्प-निर्झरीनिकुञ्ज-कोटरे वसन् विमुक्त-दुर्मतिःसदा शिरःस्थ-मञ्जलिंवहन्वि,मुक्त-लोल-लोचनो ललाम-भाललग्नकःशिवेति मंत्र-मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम्…१३ !
कब मैं गंगा जी के कछारगुञ में निवास करता हुआ, निष्कपट हो, सिर पर अंजली धारण कर चंचल नेत्रों तथा ललाट वाले शिव जी का मंत्रोच्चार करते हुए अक्षय सुख को प्राप्त करूंगा।
निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥ प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना। विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिःशिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम् ॥१५॥ इदम् हि नित्य-मेव-मुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धि-मेति-संततम्ह,रे गुरौ सुभक्तिमा शुयातिना न्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम्…१६ !
इस उत्त्मोत्त्म शिव ताण्डव स्रोत को नित्य पढने या श्रवण करने मात्र से प्राणि पवित्र हो, परंगुरू शिव में स्थापित हो जाता है तथा सभी प्रकार के भ्रमों से मुक्त हो जाता है।
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यःशंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे,तस्य स्थिरां रथ गजेन्द्र तुरङ्ग युक्तां लक्ष्मीं सदैवसुमुखिं प्रददाति शंभुः…१७ !
प्रात:शिवपुजन के अंत में इस रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र के गान से लक्ष्मी स्थिर रहती हैं तथा भक्त रथ, गज, घोडा आदि सम्पदा से सर्वदा युक्त रहता है।
https://www.youtube.com/watch?v=OVi9ChwCgDY
इस लेख में दिये उदाहरण एवं इसका परिप्रेक्ष्य मुख्य रूप से भारत का दृष्टिकोण दिखाते हैं और इसकावैश्विक दृष्टिकोण नहीं दिखाते।कृपया इस लेख को बेहतर बनाएँ और वार्ता पृष्ठ पर इसके बारे में चर्चा करें।
POSTED BY-DHARMENDRA SINGH