जब टूटा शनिदेव का अंहकार (पिप्पलाद की कथा)

शनि देव महाराज की जय हो..पौराणिक कथाएं..

पिप्पलाद ऋषि ने शनि के कष्टों से मुक्ति के लिए इस स्तोत्र की रचना की।राजा नल ने भी इसी स्तोत्र के पाठ द्वारा अपना खोया राज्य पुन: पा लिया था और उनकी राजलक्ष्मी भी लौट आई थी।
य: पुरा नष्टराज्याय, नलाय प्रददौ किल ।
स्वप्ने तस्मै निजं राज्यं, स मे सौरि: प्रसीद तु ।।1।।
केशनीलांजन प्रख्यं, मनश्चेष्टा प्रसारिणम् ।
छाया मार्तण्ड सम्भूतं, नमस्यामि शनैश्चरम् ।।2।।
नमोsर्कपुत्राय शनैश्चराय, नीहार वर्णांजनमेचकाय ।
श्रुत्वा रहस्यं भव कामदश्च, फलप्रदो मे भवे सूर्य पुत्रं ।।3।।
नमोsस्तु प्रेतराजाय, कृष्णदेहाय वै नम: ।
शनैश्चराय ते तद्व शुद्धबुद्धि प्रदायिने ।।4।।
य एभिर्नामाभि: स्तौति, तस्य तुष्टो ददात्य सौ ।
तदीयं तु भयं तस्यस्वप्नेपि न भविष्यति ।।5।।
कोणस्थ: पिंगलो बभ्रू:, कृष्णो रोद्रोsन्तको यम: ।
सौरि: शनैश्चरो मन्द:, प्रीयतां मे ग्रहोत्तम: ।।6।।
नमस्तु कोणसंस्थाय पिंगलाय नमोsस्तुते ।
नमस्ते बभ्रूरूपाय कृष्णाय च नमोsस्तुते ।।7।।
नमस्ते रौद्र देहाय, नमस्ते बालकाय च ।
नमस्ते यज्ञ संज्ञाय, नमस्ते सौरये विभो ।।8।।
नमस्ते मन्दसंज्ञाय, शनैश्चर नमोsस्तुते ।
प्रसादं कुरु देवेश, दीनस्य प्रणतस्य च ।।9।।
शनि स्तोत्र के बाद दशरथकृत शनि स्तवन पाठ का भी जाप करना चाहिए जिससे लाभ दोगुना हो जाता है।
किशनगंज/धर्मेन्द्र सिंह, त्रेतायुग में एक बार बारिश के अभाव से अकाल पड़ा।तब कौशिक मुनि परिवार के लालन-पालन के लिए अपना गृह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाने के लिए अपनी पत्नी और पुत्रों के साथ चल दिए।फिर भी परिवार का भरण-पोषण कठिन होने पर दु:खी होकर उन्होनें अपने एक पुत्र को बीच राह में ही छोड़ दिया।वह बालक भूख-प्यास से रोने लगा।तभी उसने कुछ ही दूरी पर एक पीपल का वृक्ष और जल का कुण्ड देखा।उसने भूख शांत करने के लिए पीपल के पत्तों को खाया और कुण्ड का जल पीकर अपनी प्यास बुझाई।वह बालक प्रतिदिन इसी तरह पत्ते और पानी पीकर और तपस्या कर समय गुजारने लगा।तभी एक दिन वहां देवर्षि नारद पहुंचे।बालक ने उनको नमन किया।नारद मुनि विपरीत दशा में बालक की विनम्रता देखकर खुश हुए।उन्होंने तुरंत बालक का यथोचित संस्कार कर वेदों की शिक्षा दी।उन्होंने उसे ॐ नमो: भगवते वासुदेवाय नमः की मंत्र दीक्षा भी दी।वह बालक नित्य भगवान विष्णु के मंत्र का जप कर तप करने लगा।नारद मुनि उस बालक के साथ ही रहे।बालक की तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए।भगवान विष्णु ने प्रगट होकर बालक से वर मांगने को कहा।बालक ने भगवत भक्ति का वर मांगा।तब भगवान विष्णु ने बालक को योग और ज्ञान की शिक्षा दी।जिससे वह परम ज्ञानी महर्षि बन गया।एक दिन बालक के मन में जिज्ञासा पैदा हुई।उसने नारद मुनि से पूछा कि इतनी छोटी उम्र में ही क्यों मेरे माता-पिता से अलगाव हो गया।क्यों मुझे इतनी पीड़ा भोगना पड़ रही है।आपने मुझे संस्कारित कर ब्राह्मण बनाया है।अत: मेरी पीड़ा का कारण भी बताएं।नारद मुनि ने बालक से कहा-तुमने पीपल के पत्तों को खाकर घोर तप किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम पिप्पलाद रखता हूं।जहां तक तुम्हारे कष्टों की बात है, तो उसका कारण शनि ग्रह है।जिसके अहंकार वश धीमी चाल के कारण तुम्हारे साथ ही पूरा जगत भी अकाल की पीड़ा भोग रहा है।यह सुनकर बालक ने बहुत क्रोधित हो गया।उसने आवेशित होकर जैसे ही आकाश में विचरण कर रहे शनि को देखा।तब शनि ग्रह बालक पिप्पलाद के तेजोबल से जमीन पर एक पर्वत पर आ गिरा।जिससे वह अपंग हो गया।शनि की ऐसी दुर्दशा देखकर नारद मुनि खुश हो गए।उन्होंने सभी देवी-देवताओं को यह दृश्य देखने के लिए बुलाया।तब वहां पर ब्रह्मदेव सहित अन्य देवों ने आकर बालक पिप्पलाद के आवेश को शांत कर कहा कि नारद मुनि द्वारा रखा गया तुम्हारा नाम श्रेष्ठ है और आज से तुम पूरे जगत में इसी नाम से प्रसिद्ध होगे।जो भी व्यक्ति शनिवार के दिन पिप्पलाद नाम का ध्यान कर पूरी श्रद्धा और भावना से पूजा करेगा।उसको शनि ग्रह के कष्टों से छुटकारा मिलेगा और उसको संतान सुख भी प्राप्त होंगे।ब्रह्मदेव ने साथ ही पिप्पलाद मुनि को शनिग्रह की शांति के लिए उनकी पूजा और व्रत का विधान बताकर कहा कि तुम धराशायी हुए शनि को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित कर दो, क्योंकि वह निर्दोष हैं।पिप्पलाद मुनि ने भी ब्रह्मदेव के आदेश का पालन किया और उनसे शनिश्चर व्रत विधि जानकर जगत को शनि ग्रह की शांति का मार्ग बताया। इसीलिए शनि ग्रह की शांति के लिए शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के साथ ही शनिदेव के पूजन की परंपरा है।