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*संघर्ष, स्नेह और संस्कार का मूर्ति स्वरूप होते हैं – “पिता”*

प्रशांत कुमार सिन्हा, बेंगलुरु, ::भारतीय सनातन संस्कृति में पिता को देवता के तुल्य माना जाता है। “पिता स्वर्ग, पिता धर्मः, पिता हि परमं तपः” ऐसा कहा गया है, अर्थात पिता स्वर्ग के समान हैं, धर्म हैं और तपस्या के परम स्वरूप हैं। पिता वह अस्तित्व है, जो अपने जीवन की समस्त ऊर्जा, समय और सामर्थ्य अपनी संतान के उज्ज्वल भविष्य को बनाने में समर्पित कर देते हैं। “पितृ दिवस” (Father’s Day) का आयोजन न केवल एक आधुनिक परंपरा है बल्कि यह सनातन संस्कृति की उसी भावना को पुनः जीवित करता है, जहाँ पिता को परमात्मा का प्रतिनिधि माना गया है।

माँ के ममत्व और वात्सल्य के समान पिता का त्याग और स्नेह अक्सर शब्दों में नहीं होता है बल्कि कार्यों में प्रकट होता है। वह भावनाओं को चेहरे पर नहीं, कर्तव्यों में अभिव्यक्त करता है। कभी स्कूली फीस की चिंता में रातें जागकर, तो कभी बच्चों के सपनों को साकार करने के लिए स्वयं के शौक और इच्छाओं का बलिदान करकर, पिता हर परिस्थिति में एक योद्धा की तरह खड़ा रहता है। जिस तरह एक वृक्ष बिना फल-फूल के भी छाया देता है, ठीक वैसे ही पिता कभी अपने दर्द का उल्लेख नहीं करता है , लेकिन बच्चों के दुख में स्वयं को समर्पित कर देता है।

सनातन संस्कृति में पिता को केवल जन्मदाता नहीं, अपितु ‘धर्मदाता’ भी कहा गया है। वह जीवन का पहला शिक्षक होता है जो अपने कठोर अनुशासन, उच्च नैतिकता और व्यवहारिक शिक्षा से संतान को जीवन के संघर्षों के लिए तैयार करता है। मनुस्मृति के अनुसार, पुत्र को सद्गुणी, शिक्षित और समाजोपयोगी बनाना पिता का धर्म है। एक ऐसा धर्म जिसे वह बिना दिखावे के निभाता है। पिता के व्यक्तित्व में गुरु की कठोरता और मित्र की आत्मीयता एक साथ विद्यमान होती है।
कई बार संतान इस मुगालते में जीती है कि उसे अपने पिता से धन, संपत्ति या विरासत चाहिए। लेकिन सच्चाई यह है कि पिता का सजीव और सन्निकट होना ही सबसे बड़ी पूँजी होती है। उसके अनुभव, उसके आशीर्वाद, उसकी बातें, ये सब मिलकर जीवन के हर मोड़ पर दिशा देते हैं। दुनिया के सबसे अमीर लोग भी जब अपने पिता को खोते हैं, तो जीवन का एक अभिन्न हिस्सा खो देते हैं। क्योंकि धन की क्षति पुनः प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन पिता का साथ केवल एक बार मिलता है।

एक बच्चे का संपूर्ण विकास केवल माँ के प्रेम से नहीं, बल्कि पिता की छाया और अनुशासन से भी होता है। जब पिता की अंगुली थामकर बच्चा चलना सीखता है, तो वह केवल शारीरिक चलना नहीं होता है, बल्कि वह जीवन की दिशा पकड़ने का आरंभ होता है। पिता के बिना जीवन एक दिशाहीन नौका की तरह हो जाता है, जो चाहे कितनी भी तेज चले, किनारे नहीं लग पाती। इसलिए पिता की भूमिका, चाहे वह प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, जीवन की संरचना में अपरिहार्य है।

बचपन में बच्चों की पढ़ाई, किशोरावस्था में उनके सपनों और युवावस्था में उनकी जिम्मेदारियों का भार पिता स्वयं वहन करता है। शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब वह स्वयं के लिए जीता हो। आवश्यकता पड़ने पर नयी साइकिल के लिए EMI बनाना, बच्चों के स्कूल फंक्शन में छुट्टी लेकर आना, दिनभर की थकान के बाद होमवर्क पूछना, बेटी की शादी के लिए वर्षों की बचत करना, यह सब कुछ पिता अपने अधिकार के रुप में नहीं, अपने कर्तव्यों के रूप में देखता है।
पिता का प्यार प्रायः कठोरता की आड़ में छुपा होता है। वह डांटता है, अनुशासित करता है, लेकिन यह सब इसलिए करता है ताकि संतान, जीवन में अनुशासन, मर्यादा और आत्मबल का पाठ पढ़े। वह जानता है कि जीवन आसान नहीं होता है, इसलिए वह अपने बच्चों को दुनिया के लिए मजबूत बनाना चाहता है। उसकी कठोरता एक कवच की तरह होती है, जो बच्चों को आघात से बचाती है।

“Father’s Day” को महज सोशल मीडिया पोस्ट, फूल या कार्ड का दिवस न मानें। यह वह दिन है जब हम अपने जीवन के मार्गदर्शक, अपने संरक्षक, अपने पहले हीरो के प्रति आभार व्यक्त करें, उन्हें समय दें, उनके अनुभवों को सुनें, उनके स्वास्थ्य की चिंता करें, और सबसे जरूरी, उन्हें यह जताएँ कि वे हमारे लिए क्या मायने रखते हैं।
पुराणों और शास्त्रों में कहा गया है कि जो पुत्र अपने पिता की सेवा करता है, उसका ध्यान रखता है, वह इस लोक और परलोक दोनों में जयी होता है।

“यः पितरं पूजयते, तेन त्रैलोक्यं पूज्यते।”

पिता को देव बुद्धि से देखना केवल एक आध्यात्मिक संकल्प नहीं है, एक व्यावहारिक समझ भी है। पिता के आशीर्वाद से ही संतान की बुद्धि तेजस्वी, मन स्थिर और आत्मा संतुष्ट होती है।

जब दुनिया आपके विरुद्ध हो जाए, जब रास्ते बंद दिखने लगें, जब दोस्त साथ न दें, तब भी एक व्यक्ति होता है जो पूरी निष्ठा से आपके साथ खड़ा रहता है वह होता है आपका पिता। वह दीवार बनकर खड़ा होता है, जब दुनिया धक्का देती है। वह चुपचाप समर्थन करता है, बिना कुछ कहे। क्योंकि उसका स्नेह शब्दों का मोहताज नहीं, कर्म का प्रतीक होता है।

घर में जो छत होती है, वह बारिश और धूप से तो बचाती ही है, लेकिन वह दिखती नहीं है। ठीक वैसे ही पिता समाज में अपने परिवार की छत होता है। वह बेटे को साहस देता है, बेटी को आत्मविश्वास, पत्नी को सुरक्षा और पूरे परिवार को आत्मबल। जब समाज में पिता की भूमिका को कम आंका जाता है, तब पारिवारिक संतुलन टूटने लगता है। इसलिए “पितृत्व” को केवल एक भूमिका नहीं, एक सामाजिक संस्था मानना आवश्यक है।

पिता की भूमिका ऐसा होता है कि “पिता की उंगली पकड़कर चलना चाहिए, रास्ते खुद आसान हो जायेगा”, “पिता वो छत होता है, जो गिरने नहीं देता, चाहे खुद कितनी भी कमजोर क्यों न हो।”, “पिता के चेहरे की झुर्रियाँ उसकी जीत की निशानियाँ हैं, जिन्होंने तुम्हें हारने नहीं दिया।”, “बाप अमीर हो या गरीब, लेकिन उसका होना ही दुनिया की सबसे बड़ी दौलत होता है।”

पौराणिक काल से ही “पितृ सेवा” भारतीय जीवन मूल्यों का आधार रही है। श्रवण कुमार की कथा, राम का वनवास, भरत का त्याग, यह सब पितृभक्ति के उदाहरण हैं। आज के समय में इन मूल्यों की आवश्यकता और भी बढ़ गई है। पितृ दिवस के अवसर पर हम सभी को यह संकल्प लेना चाहिए कि पिता की सेवा करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। उनके सम्मान में कोई कमी न आने देना हमारा धर्म होना है और उनकी इच्छाओं का सम्मान करना हमारा कर्तव्य होना चाहिए।

पिता वह दीपक है जो खुद जलकर हमारे रास्तों को रोशन करता है। वह जीवन का वह स्तंभ है, जिसके बिना किसी भी भवन की नींव कमजोर हो जाती है। पिता केवल घर चलाने वाला व्यक्ति नहीं होता है, वह एक आदर्श, एक मूल्य, एक संस्कृति है। “पितृ दिवस” सिर्फ एक दिन नहीं है, बल्कि यह उस पूरे जीवन का प्रतीक है, जिसे एक पिता अपनी संतान को देता है।
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