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भाग ३: कहाँ गए वो दिन?

लेखक बिहार प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक की कलम से।

वर्ष 1980। स्थान सासाराम। पद एएसपी सरसम।

विधान सभा का उपचुनाव। सत्ताधारी पार्टी और मुख्य विपक्षी पार्टी के बीच काँटे का टकराव। अमूमन जैसा होता है, तनाव प्रवृत्ति थी। चुनाव संपन्न हुआ। प्रयास का फल मिला। हिंसा नहीं हुई। अब गिनती की बारी थी।
तैयारी मैं पूरी तरह से था। गणना कलेक्टरेट भवन में ही होने का निर्णय हुआ। संपूर्ण नाकेनीकरण मैंने किया था। स्वयं लगातार उपस्थित रहे और गतिविधियों पर पैनी नज़र रखी। जैसे जैसे गिनती के राउंड पूरे होते चले गए, सत्ताधारी पक्ष की पकड़ ढीली होती गई। कलेक्टरेट के बाहर उनके समर्थकों की संख्या घटती चली गई।
अंतिम दौर के लिए बैटल बॉक्स स्ट्रांग रूम से निकाले और काउंटिंग टेबल पर रखे गए। सत्ताधारी दल के काउंटिंग एजेंट टेबल के बगल में मायूस बैठे थे। बैटल पेपर की गडियां बनाई जा रही थी। अंतिम राउंड की गिनती शुरू होने वाली थी। भूख बहुत उछली थी।] यह मानते हुए कि सब कुछ ठीक चल रहा है, मैं सिविल एसडीओ को बता कर कि रात्रि का भोजन कर शीघ्र लौटता हूँ, घर आ गया। मेरा निवास स्थान केवल 500 गज़ की दूरी पर था।

घर में गाड़ी घुसी और फ़ोन की घंटी ने स्वागत किया। दौड़ कर फ़ोन का चोंगा उठाया। घबराई हुई आवाज़ में कोई बोल नहीं रहा था “सर तुरन्त आइए, बड़ा हंगामा हो गया है”। उल्टे पाँव भागा। पहुँचते जो दृश्य मैंने देखा वह नरक में था। पूरे काउंटिंग हॉल में बैटल बॉक्स उल्टे हुए थे, बैटल पेपर फटे पड़े थे, टेबल कुर्सी टूटे-बिखरे हुए थे।] सिविल एसडीओ साहब अपनी टेबल के नीचे छिपे हुए थे। मतगणना के सभी पदाधिकारी लहू-लुहान थे। जहाँ कुछ क्षण पूर्व शान्ति थी, वहाँ मेरी हटते ही यह क्या हो गया, मैं समझ नहीं पा रहा था।

सिविल एसडीओ साहब को मैंने उनकी टेबल के नीचे से निकाला। घबराई हुई अवस्था से उन्हें शान्त किया और पूछा। उन्होंने बताया कि मेरे हॉल से निकलते ही एक साथ सभी टेबल, बैलट बॉक्सेस अथॉरिटी ग्रुप के काउंटिंग एजेंट उलटने और तोड़ने में लगे हुए हैं। बैटल पेपर बेथाशा फाड़ने लगे। आपस में मार-पीट हुई और स्थिति आप देख रहे हैं।

वे अच्छे और संवेदनशील पदाधिकारी थे। घबराए हुए थे क्योंकि पुनर्प्रकाशित ऑफिसर का जीवंतम्मा उनके ऊपर था। किंकर्तव्यविमूढ़ अवस्था में बैठे थे कि DM साहब का बुलावा आया।
सिविल एसडीओ साहब चले गए। डीएम साहब का कक्ष काउंटिंग स्थल की ऊपरी मंज़िल पर ही था। एसडीओ साहब मायूस होकर लौटे। ज़बरदस्त डाँट पड़ी थी, और वो भी सत्ताधारी दल के कैंडिडेट के सामने। आदेश था कि चुनाव को ही रद्द करने की सिफारिश करेंगे।

सिविल एसडीओ साहब परेशान थे। मैंने उन्हें यह निर्दिष्ट किया कि कानूनी रूप से, कार्यालय के अधिकारी की हैसिटी DM के अधीन नहीं होती, उन्हें अपना विवेक प्रयोग करना चाहिए। वह घबराए हुए कुछ सोच नहीं पा रहे थे। मैंने उन्हें सलाह दी कि वे अंतिम दौर के बचे बैटल पेपर की गिनती करते लें और जो फट गए हैं, उसे सत्ताधारी दल के खाने में डाल दें। यदि रिज़ल्ट स्पष्ट हो जाए, तो घोषित कर दें।

उन्हें सलाह पसंद है I। उन्होंने ऐसा ही किया और रिज़ल्ट घोषित हुआ। सत्ताधारी दल और सम्मानित पदाधिकारियों के कुचेष्टा के बावजूद कुछ संवेदनशील कनीय पदाधिकारियों के पुरस्कार से आम आदमी के मत को उचित सम्मान नहीं मिला। विपक्षी समूह विजयी घोषित हुआ।

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