विश्व पर्यावरण दिवस 2025 के अवसर पर “प्राचीन भारतीय संस्कृति में पर्यावरण की भूमिका” विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन

त्रिलोकी नाथ प्रसाद/पटना: कला, संस्कृति एवं युवा विभाग, बिहार एवं पुरातत्व निदेशालय के तत्वावधान में बिहार संग्रहालय, पटना के ऑरिएंटेशन थिएटर में आज “प्राचीन भारतीय संस्कृति में पर्यावरण की भूमिका” विषय पर एक दिवसीय संगोष्ठी का सफल आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित की गई।
कार्यक्रम का उद्घाटन विभाग के सचिव श्री प्रणव कुमार, भा.प्र.से., श्रीमती रचना पाटिल, भा.प्र.से., निदेशक, पुरातत्व एवं संग्रहालय निदेशालय, व वक्ताओं ने दीप प्रज्वलन कर के किया।
श्रीमती रचना पाटिल ने स्वागत भाषण देते हुए सभागार में उपस्थित तमाम अतिथियों का स्वागत किया। खास करके उन्होंने कला, संस्कृति पदाधिकारियों का स्वागत किया जो कार्यक्रम में शरीक हुए थे । उन्होंने सबका आवाहन करते हुए कहा कि यहां से आप लोग बहुत कुछ सीख कर जाएं ऐसी मेरी आकांक्षा है। आप लोग यह सीखे की पर्यावरण का संरक्षण क्यों जरूरी है।
इसके बाद विभाग के सचिव श्री प्रणव कुमार ने सभागार में उपस्थित छात्र-छात्राओं और लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि पर्यावरण का संरक्षण बहुत जरूरी है। आज विश्व को यह संदेश देना है कि पर्यावरण से बड़ा कुछ भी नहीं। तथ्यों को खंगालते हुए उन्होंने कहा कि आज विश्व के कई द्वीप खतरे में है जो आने वाले कल में हो सकता है विलुप्त हो जाए। इसलिए पर्यावरण के प्रति जागरूकता वर्तमान में कहीं ज्यादा है। उन्होंने अपने उद्बोधन में कहा कि हमारा जो अध्यात्म है वह भी हमें प्रकृति से जोड़ता है। इतिहास से ही हम पर्वत-पहाड़ और प्रकृति को पूजते आए हैं। कई वृक्ष हमारे लिए पूजनीय है। हमारे साहित्य भी हमें पर्यावरण से जुड़ने की प्रेरणा देते हैं। मेघदूत में एक महिला बादलों के द्वारा अपना संदेश भेजने की कोशिश करती है। पर्यावरण हम लोग के लिए ढाल का काम करती है। हमें सुरक्षित रखती है। इसलिए इसका बचाव और रखरखाव हमारा नैतिक दायित्व बन जाता है।
इसके बाद पर्यावरण का संदेश देते हुए बच्चियों द्वारा मनमोहक नृत्य प्रस्तुत किया गया। नृत्य श्रीमती सुदीपा घोष और श्रीमती संगीता रमण के निर्देशन में प्रस्तुत हुआ।
शैक्षणिक सत्र की शुरुआत कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ के प्रो. (डॉ.) रवि कोरिसेठर द्वारा “Human Response to Climate Change during the Late Quaternary in South Asia” विषय पर प्रस्तुतीकरण से हुई, जिसमें उन्होंने जलवायु परिवर्तन के प्रति प्राचीन मानव समाज की प्रतिक्रियाओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा की जब तक पर्यावरण सहायक न हो मनुष्य की जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।
इसके पश्चात भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नई दिल्ली के सेवानिवृत्त संयुक्त महानिदेशक डॉ. एस.बी. ओटा ने “Archaeology and Environment – A Summary of Their Interconnected Relationship as Demonstrated at the Bhimbetka World Heritage Site” विषय पर अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने भीमबेटका स्थल पर पुरातत्व और पर्यावरण के अंतर्संबंध को रेखांकित किया। आगे उन्होंने बताया की भीमबेटका कैसे प्रदूषित हो रही है। उन्होंने कैसे इसे बचाने का कोशिश किया। उन्होंने जंगल को बचाने के लिए ताकत नहीं जागरूकता की आवश्यकता बताई।
अंतिम व्याख्या डॉ. प्रवीण सुकुमारन, असिस्टेंट प्रोफेसर, डॉ. केसी. पटेल रिसर्च एंड डेवलपमेंट सेंटर, चारुसत विश्वविद्यालय, गुजरात द्वारा “Landscapes of Time: Tracing Environmental Change and Cultural Response in Ancient India” विषय पर दी गई, जिसमें उन्होंने पर्यावरणीय बदलावों और उनके सांस्कृतिक प्रभावों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन किया। उन्होंने कहा की आधुनिक तकनीक ने हमें प्रकृति से दूर किया है। बदलाव का अध्ययन कर के ही हम भविष्य को बदल सकते है।
प्रत्येक व्याख्यान के उपरांत प्रतिभागियों के साथ समूह चर्चा भी आयोजित की गई, जिससे विचारों का आदान-प्रदान और गहन विमर्श संभव हो सका।
कार्यक्रम के अंत में पर्यावरण विषय पर आधारित एक लघु नाट्य मंचन भी प्रस्तुत किया गया, जिसने पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता को भावनात्मक रूप से दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया। लघु नाट्य का मंचन माध्यम फाउंडेशन सोनारू, फतुहा, बिहार द्वारा हुआ।
एक दिवसीय संगोष्ठी में बड़ी संख्या में छात्र-छात्रा, शोधार्थी, शिक्षक, पदाधिकारी शामिल हुए।