राज्य

*बुजुर्गों की बढ़ती उम्र पर लोग दुआएं कम और ताना ज्यादा देते हैं क्यों?*

जितेन्द्र कुमार सिन्हा,  ::हमारा समाज समय के साथ कितना बदल गया है, इसका अंदाजा हमें तब होता है जब हम बुजुर्गों के जीवन को नज़दीक से देखते हैं। पहले जहाँ बुजुर्गों को घर की शान, अनुभव और आशीर्वाद का स्रोत माना जाता था, वहीं अब कई बार उन्हें बोझ, परेशानी और ‘सहने लायक’ वस्तु की तरह देखा जाने लगा है। यह बदलाव केवल शब्दों में नहीं, बल्कि व्यवहार, नजरिए और दिनचर्या में झलकता है।

मेरे बड़े भाई बीरेन्द्र कुमार सिन्हा ने हाल ही में एक घटना साझा की, जो उन्होंने खुद अपने मित्र के जीवन में घटित होते हुए देखी। उन्होंने मुझसे पूछा, “जितेन्द्र, तुम बताओ – यह घटना सुखद है या दुखद?” उनकी आँखों में एक गहरी उदासी थी, और यह सवाल सिर्फ एक घटना के बारे में नहीं था – यह हमारे समाज की अंतरात्मा को झकझोर देने वाला प्रश्न था।

घटना उनके मित्र मनोहर बाबू की है, जो झारखंड के लातेहार में रहते थे। जीवन की आधी से ज्यादा उम्र पत्नी के साथ काट दी थी। पर जैसे हर इंसान की ज़िन्दगी में एक दिन अंतिम पड़ाव आता है, वैसे ही एक दिन उनकी पत्नी का निधन हो गया। एक बड़ा सहारा छिन गया। उनका एक बेटा है, जो बेंगलुरु में एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े पद पर कार्यरत है। बेटा, बहू और उनके दो बच्चे—भरा-पूरा परिवार था। माँ के निधन के बाद बेटे ने आग्रह किया कि पिताजी अब हमारे साथ रहिए। मनोहर बाबू नहीं चाहते थे कि वे बेटे के घर रहें। उन्होंने विनम्रतापूर्वक यह बात कही भी, पर बेटे और बहू की जिद के आगे झुकना पड़ा।

बेंगलुरु की चकाचौंध भरी दुनिया में कदम रखते हुए मनोहर बाबू ने यह उम्मीद की कि शायद बेटे-बहू का यह आमंत्रण सचमुच स्नेह और चिंता से प्रेरित हो। लेकिन जल्द ही यह भ्रम टूटने लगा। पहले पहल तो व्यवहार सामान्य था, पर दिन-ब-दिन बहू की बातें बदलने लगीं। एक बार नाश्ते की मेज पर खाना गिर जाने पर बहू ने कहा – “क्या पापाजी, खाना भी ठीक से नहीं खा सकते, पूरा टेबल गंदा कर दिया।” मनोहर बाबू चुप रहे। फिर एक दिन बाथरूम से निकलने के बाद कहा गया – “कम से कम पानी तो ठीक से डाल दिया कीजिए पापाजी, देखिए कितनी गंदगी कर दी है।” ये बातें अब ताना बन गई थीं। आवाज़ में मधुरता नहीं थी, तिरस्कार था। वह मिठास जो उत्तर भारत की बहुओं की भाषा में होती है, अब व्यंग्य बन गई थी।

मनोहर बाबू का अपराध बस इतना था कि अब उनकी उम्र 65 के पार थी। शरीर उतना साथ नहीं देता था। हाथ काँपते थे, आँखें धुंधली हो चुकी थीं। मगर फिर भी वे पूरी कोशिश करते थे कि किसी को शिकायत का मौका न दें। लेकिन कोशिशें भी कब तक साथ देतीं?

अब वह घर उन्हें अपना घर नहीं लगता था। बस एक कमरा, एक पलंग और एक अदृश्य दीवार जो उन्हें बाकी परिवार से अलग कर चुकी थी। उनका एकमात्र सहारा था उनका पोता केशव। वही बच्चा जिससे उन्हें सुबह-शाम बातें करने में सुकून मिलता, पार्क में घूमना, कहानियाँ सुनाना—यह सब उनके जीवन की अंतिम रौशनी बन गया था।

एक सुबह जब बहू ने कुछ तीखा कहा, तो मनोहर बाबू कुछ खा भी नहीं पाए। वे अपने आंसुओं के साथ पार्क की एक बेंच पर बैठे थे। तब उनके पोते केशव ने उनकी भीगी पलकों को पोंछते हुए मासूमियत से पूछा – “दादाजी, हम इंसान बूढ़े क्यों हो जाते हैं?” मनोहर बाबू कुछ देर निहारते रहे अपने पोते को। आसपास नज़रे घुमाईं—बच्चे, जवान, बूढ़े सभी जीवन के किसी न किसी पड़ाव पर खड़े थे। उनके सामने जैसे खुद का जीवन फ़िल्म की तरह चलने लगा—बचपन, जवानी, विवाह, संघर्ष, परिवार, पत्नी का साथ और अब अकेलापन।

आँखें भर आईं। गला रुंध गया। उन्होंने धीरे से कहा –
“बेटा, ताकि हमारे मरने पर किसी को अफसोस न हो।”

उनके इस वाक्य में वह वेदना थी जो वर्षों से चुपचाप भीतर घुल रही थी। वह दर्द, जिसे शब्द नहीं मिलते। वह अनुभव जो सिर्फ महसूस किया जा सकता है। और वह असहायता, जो हर उस बुज़ुर्ग के चेहरे पर कभी न कभी उभरती है, जिसे अपनों ने ‘जरूरत से ज्यादा’ समझ लिया हो।

कुछ ही दिनों बाद, एक सुबह केशव जब अपने दादा के कमरे में गया, तो देखा कि वे पलंग पर वैसे ही लेटे हैं। वह कुछ देर बैठा रहा, पर दादा की साँसे अब नहीं चल रही थीं। उन्होंने चुपचाप संसार को अलविदा कह दिया था। बिना कोई शोर किए, बिना कोई शिकायत किए। उनका जाना ऐसा था, मानो वे कह रहे हों – “अब कोई ताना नहीं सुनना है… अब बस सुकून चाहिए।”

इस घटना के बाद उनके बेटे-बहू की दुनिया में शायद कुछ नहीं बदला होगा, लेकिन केशव के मासूम दिल में कुछ जरूर टूट गया होगा। एक ऐसा रिश्ता, जिसे उसने अब तक सिर्फ प्यार में देखा था, अब सन्नाटे में बदल गया था।

यह कहानी केवल मनोहर बाबू की नहीं है। यह हमारे आस-पास के उन हजारों बुज़ुर्गों की है, जो अपनों के बीच होकर भी अकेले हैं। जिनके हिस्से में अब दुआ नहीं, ताने आते हैं। जो दवाइयों की पर्ची से ज्यादा अपनी इज्जत के भूखे हैं। जिन्हें कभी घर की नींव कहा जाता था, आज दीवार से लगाकर छोड़ दिया गया है।

हमारी संस्कृति ने हमेशा सिखाया है – “मातृदेवो भव, पितृदेवो भव।” लेकिन अब इस संस्कृति पर ‘व्यस्तता’, ‘प्राइवेसी’, और ‘न्यूक्लियर फैमिली’ जैसे शब्द भारी पड़ गए हैं। क्या यह हमारी हार नहीं? क्या हम सच में इतने आधुनिक हो गए हैं कि अपने बुज़ुर्गों की आँखों का दर्द नहीं पढ़ पाते?

शायद समय आ गया है कि हम खुद से यह सवाल पूछें –

क्या हमने बुज़ुर्गों को केवल इसलिए सहना शुरू कर दिया है कि वे हमारे घर में हैं, या इसलिए कि वे हमारे दिल में भी हैं?

यह घटना सुखद नहीं है, दुखद भी नहीं है – यह एक चेतावनी है। यह एक आईना है, जिसमें हर उस बेटे, बहू, पोते, पोती को देखना चाहिए, जिनके घर में कोई बुज़ुर्ग है। आज वो हैं, कल हम होंगे। जैसे हम आज अपने बुज़ुर्गों के साथ व्यवहार करते हैं, वैसा ही भविष्य हमारे लिए भी इंतजार करता है।

कहानी खत्म नहीं होती। बस, पात्र बदलते हैं। और अगर हम न बदले, तो यही घटनाएं दोहराई जाती रहेंगी—कभी मनोहर बाबू के नाम से, कभी किसी और के…
———

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button