*आत्मनिर्भर बनने को स्वदेशी का सम्मान जरूरी मनोज कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार।।….*

त्रिलोकी नाथ प्रसाद :- दुनिया के अधिकतर देशों की अर्थव्यवस्था की सेहत कोरोना से बिगड़ी है। भारत सहित सभी देशों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति पर कोरोना का असर देखने को मिल रहा है। हालांकि, अभी कोरोना से पूरी तरह मुक्ति नहीं मिली है। लेकिन, करीब छह महीने की आर्थिक मंदी से बेपटरी हुई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कोशिश हर देश कर रहा है। भारत ने भी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की कवायद तेज किया है। भारत सरकार ने उदारीकरण और वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबाव के बावजूद ग्रामीण और स्थानीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा जताया है। महात्मा गांधी ने गांव में रहकर आत्मनिर्भर रहने का मूल मंत्र अपने सम्पूर्ण जीवन काल में दिया। आज अगर गांधी दर्शन पर गौर किया जाये तो स्वदेशी अपनाओ से लेकर स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनने पर जोर दिखेगा। यही आज के समय की जरूरत भी है। उदारीकरण और बढ़ते वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबाव में इसपर न तो सरकारों ने ध्यान दिया और न ही नागरिकों ने इसे समझा। लेकिन, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उदारीकरण के दौर में लोकल से अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का साहसिक संदेश और मंत्र दिया, तो देश के नागरिक भी लोकल की ओर मुखातिब होने लगे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार स्वदेशी सामान के प्रयोग की अपील आम जनता से करते रहे हैं। उनका मानना है कि स्वदेशी सामान का प्रयोग करने से विदेशों में भी हमारे सामान की डिमांड बढ़ेगी। और, इसी दूरदर्शी सोच ने नारा गढ़ दिया ‘वोकल फॉर लोकल’। कोरोना से जारी लड़ाई के बीच इस नारे का सुखद परिणाम इस बार दीपावली में दिखने लगा है। भारत सरकार की ओर से चलाए जा रहे घरेलू उत्पादों के प्रयोग पर जोर देने और एंटी चाइनीज प्रोडक्ट कैंपेन की वजह से चीन को दीपावली से पहले बड़ा नुकसान हुआ है। दीपावली से करीब एक महीना पहले ही तैयारियों को लेकर खरीदारी शुरू हो जाती है। जिसमें चीनी प्रोडक्ट की ज्यादा डिमांड रहती रही है, लेकिन गलवान घाटी प्रकरण के बाद सरकार और व्यापारिक संगठनों की ओर से चलाए जा रहे हैं कैंपेन के कारण देश में चीनी सामानों की जगह घरेलू उत्पादों की खरीदारी बढ़ गई है। इस साल दीपावाली से जुड़े देसी समानों जैसे दीये, बिजली की लडिय़ां, बिजली के रंग बिरंगे बल्ब, सजावटी मोमबत्तियां, सजावट के समान, वंदनवार, रंगोली व शुभ लाभ के चिह्न, उपहार देने की वस्तुएं, पूजन सामग्री, मिट्टी की मूर्तियां समेत कई सामान का उत्पादन भारतीय कारीगरों द्वारा तैयार किया गया है। उनके सामानों के लिए बाजार भी उपलब्ध है और उपभोक्ता भी। दीपावली के मौके पर स्वदेशी सामानों से सजे बाजार और उपभोक्ताओं के रुझान ने सकारात्मक संकेत दिया है कि, देश अब यह समझ गया है कि 21वीं सदी में यदि भारत को पुनः एक वैश्विक शक्ति बनाना है, तो हर क्षेत्र में हमें आत्म निर्भरता हासिल करना जरूरी है। आत्म निर्भरता का सामान्यतः शाब्दिक अर्थ यह लगाया जाता है कि देश अर्थ केंद्रित स्वतंत्रता हासिल कर ले। अर्थात्, सभी उत्पादों को हम हमारे देश में ही निर्मित करने लगें एवं आयात पर हमारी निर्भरता कम से कम हो जाए। परंतु, भारत की संस्कृति और भारत के संस्कार उस आत्मनिर्भरता की बात करते हैं जिसकी भावना विश्व एक परिवार के रूप में रहती है। भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है तो आत्म केंद्रित आत्मनिर्भरता की वकालत नहीं करता बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुख सहयोग और शांति की चिंता समाहित होती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए हाल ही में कहा है कि 130 करोड़ भारतीय अब देश को आत्म निर्भर बनाने के मिशन पर निकल पड़े हैं। भारत के आत्म निर्भर बनने की परिभाषा में पूरे विश्व का कल्याण निहित है। भारत ने यह बार-बार दोहराया भी है कि हमारा अंतिम उद्देश्य पूरे विश्व में बंधुत्व की भावना का संचार करना एवं समस्त प्राणियों के सुखी होने से है। इसीलिए भारत अब लोकल (स्थानीय) को ग्लोबल (वैश्विक) रूप देना चाहता है, ताकि इस धरा पर रहने वाले प्रत्येक प्राणी को सुखी एवं प्रसन्न रखा जा सके। भारतीय अर्थव्यवस्था को लोकल से ग्लोबल बनाने के उद्देश्य से बहुत ही तेज़ी से कई क्षेत्रों में स्थिति सुधारने के लिए कई प्रकार के आर्थिक निर्णय लिए जा रहे हैं। गौरवशाली भारतीय अर्थव्यवस्था का इतिहास साक्षी है। भारत आर्थिक दृष्टि से बहुत ही सम्पन्न देश रहा है। प्रयाग राज, बनारस, पुरी, नासिक, आदि जो नदियों के आसपास बसे हुए थे, वे उस समय पर व्यापार एवं व्यवसाय की दृष्टि से बहुत सम्पन्न नगर थे। हज़ारों सालों से सम्पन्न भारतीय संस्कृति का पालन करते हुए अर्थव्यवस्था चलाई जाती थी। भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। वैश्विक व्यापार एवं निर्यात में भारत का वर्चस्व था। पिछले लगभग 5000 सालों के बीच में ज्यादातर समय भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रहा है। उस समय भारत में कृषि क्षेत्र में उत्पादकता अपने चरम पर थी। वर्ष 1700 में भारत का वैश्विक अर्थव्यवस्था में 25 प्रतिशत का हिस्सा था। इसी प्रकार, वर्ष 1850 तक भारत का विनिर्माण के क्षेत्र में भी विश्व में कुल विनिर्माण का 25 प्रतिशत हिस्सा था। भारत में ब्रिटिश एंपायर के आने के बाद (ईस्ट इंडिया कम्पनी- 1764 से 1857 तक एवं उसके बाद ब्रिटिश राज- 1858 से 1947 तक) विनिर्माण का कार्य भारत से ब्रिटेन एवं अन्य यूरोपीयन देशों की ओर स्थानांतरित किया गया और विनिर्माण के क्षेत्र में भारत का हिस्सा वैश्विक स्तर पर घटता चला गया। जब, एकबार पुनः भारतीय संस्कृति को केंद्र में रखकर आर्थिक विकास की पहल की गई है, तो अब जरूरत है, देश के नागरिकों को स्वदेशी के पक्ष में खड़ा होने और अपनाने तथा विदेशी और ब्रांडेड से मोहभंग करने का। देश के आर्थिक विकास के लिए एक शुद्ध भारतीय मॉडल विकसित किए जाने की महती आवश्यकता थी। लोकल को ग्लोबल पहचान देने की पहल कर इसकी नींव रख दी गई है। ग्रामीण इलाक़ों में निवास कर रहे लोगों को स्वावलंबी बनाये जाने को प्राथमिकता दी गई है। घरेलू उत्पादों को स्थानीय स्तर से उठाकर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में पैठ का खाका खिंचा गया है। उदारीकरण के दौर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के बूते देश को आत्मनिर्भर बनाने का यह साहसिक कदम है। ग्रामीण स्तर पर साबुन, तेल आदि का निर्माण करने वाले उद्योग, चाकलेट का निर्माण करने वाले उद्योग, कुकी और बिस्कुट का निर्माण करने वाले उद्योग, देशी मक्खन, घी व पनीर का निर्माण करने वाले उद्योग, मोमबत्ती तथा अगरबत्ती का निर्माण करने वाले उद्योग, पीने की सोडा का निर्माण करने वाले उद्योग, फलों का गूदा निकालने वाले उद्योग, डिसपोज़ेबल कप-प्लेट का निर्माण करने वाले उद्योग, टोकरी का निर्माण करने वाले उद्योग, कपड़े व चमड़े के बैग का निर्माण करने वाले उद्योग, आदि इस तरह के सैंकड़ों प्रकार के लघु स्तर के उद्योग हो सकते है, जिनकी स्थापना ग्रामीण स्तर पर की जा सकती है। इस तरह के उद्योगों में अधिक राशि के निवेश की आवश्यकता भी नहीं होती है और घर के सदस्य ही मिलकर इस कार्य को आसानी सम्पादित कर सकते हैं। नागरिकों द्वारा इन कुटीर एवं लघु उद्योगों में निर्मित वस्तुओं का ही उपयोग किया जाय, ताकि इन उद्योगों द्वारा निर्मित वस्तुओं को आसानी से बेचा जा सके। इसलिए भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए हर नागरिक का कर्तव्य बनता है कि घरेलू उत्पादों को खरीदें और जो आत्म निर्भर हैं वो दूसरों को आत्मनिर्भर बनाने में अपना योगदान दें।