अपसढ़ के ज्वाला प्रसाद सिंह ने जमींदारों के विरुद्ध आंदोलन छेड़ महना कचहरी को जलाया

-राष्ट्र को परिवार से ज्यादा देते थे तबज्जो, अंग्रेजी हुकूमत की यातना बाद भी रहे सक्रीय आंदोलनकारी
आंदोलन की ज्वाला इतनी की वारिसलीगंज रेलवे स्टेशन पर नवविवाहित पत्नी को छोड़ चले गए कचहरी फूंकने
-दुलार झा के नाम से आसाम मिलिट्री में हुए थे शामिल, पता चलने पर अंग्रेजों ने भेजा जेल
मनीष कमलिया/वारिसलीगंज (नवादा)नवादा जिले का एतिहासिक एवं पुरातात्विक धरोहर वारिसलीगंज का अपसढ़ गांव स्थित गढ़ अपने आप में आज भी जीवंत।विरासत के रूप में गांव के दक्षिण सड़क किनारे अवस्थित पौराणिक गढ़ की तलहट्टी में एक छोटे से मंदिर में भगवान विष्णु के बराह अवतार की विश्वस्तरीय मूर्ति इस पूरे क्षेत्र की धार्मिक गाथा सुना रही है। गांव में शिवलिंग, भगवान विष्णु, सूर्य, देवी व दर्जनों अन्य देवताओं की विखंडित मूर्तियां गली में यत्र तत्र बिखरी पड़ी है। गुप्त वंश के राजा आदित्यसेन गुप्त ने अपनी रानी कोण देवी के स्नान को ले अपसढ़ गांव के उत्तरी क्षोर पर 360 बिगहा का कोण देवी तालाब (दिग्घी तालाब) गांव की सांस्कृतिक एवं पौराणिक गाथा कह रही है।
वैसे तो वारिसलीगंज में स्वतंत्रता संग्राम के करीब साढ़े चार दर्जन स्वतंत्रता सेनानी हुए से जिसमें ज्वाला प्रसाद सिंह काफी सक्रीय भूमिका निभाकर देश को आजादी दिलाने में अहम योगदान दिया था। नाम के अनुरूप गुण वाले ज्वाला बाबू सही मायने में आजादी के दीवाने थे। अंग्रेज और जमींदारों से लोहा लेने के लिए हर वक्त तत्पर रहते थे। वारिसलीगंज के 86 वर्षीय सेवा निवृत शिक्षक, साहित्यकार व मगही के पुरोधा कवि मिथिलेश बताते हैं कि उस समय वारिसलीगंज में जमींदारों का बोलबाला था। जमींदारी प्रथा के कट्टर खिलाफ ज्वाला बाबू ने राष्ट्र के प्रति काफी समर्पित होकर कार्य करते थे। इसका उदाहरण था कि अपनी नव विवाहिता पत्नी को पहली बार ससुराल गया जिले के शेरघाटी से विदा कर अपने गांव लाने के दौरान सूचना मिलते ही बिना देर किए वारिसलीगंज रेलवे स्टेशन पर अपने बराहिल किया साथ कर खुद महना में जमींदार की कचहरी जलाने चले गए थे। महना पहुंचकर सांबे स्टेट की कचहरी में आग लगाई। इस घटना के बाद अंग्रेजो ने उन्हें जेल में डाल दिया। पुलिस इनको तरह तरह यातनाएं दी। इस क्रम में अंग्रेजी पुलिस की पिटाई से इनके कंधे की हड्डी टूट गई। जबकि फेफड़ा को काफी नुकसान हुआ था। इस बीच बीमार रहने की सूचना बाद जयप्रकाश नारायण ने इनका इलाज करवाया था। स्वामी सहजानंद की कर्म भूमि रेवरा में ज्वाला बाबू के साथ किसान धुरी सिंह, राधो सिंह, ठेरा के रामशरण सिंह भी क्रांति की आग में कूदे थे। ज्वाला बाबू ने महीनों तक फरारी की जिंदगी बिताई थी।
पिता की गौरव गाथा सुन गौरवांवित होते है उनके पुत्र:-
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स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा ज्वाला बाबू का 77 वर्षीय मंझले सुपुत्र बिंदू सिंह कहते हैं कि उनके पिता ने अंग्रेजों से बचने के लिए अपना नाम बदलकर दुलार झा रखा था। तब आसाम जा पहुंचे और वहां उन्होंने करीब तीन वर्षों तक मिलिट्री में नौंकरी किया था। बाद में जानकारी मिल जाने पर ज्वाला बाबू को अंग्रेजों ने पकड़ लिया । स्व. ज्वाला बाबू के छोटे पुत्र 64 वर्षीय अपसढ़ मुखिया राजकुमार सिंह बताते हैं कि उनके पिता ने जमींदारों के खिलाफ अनेकों लड़ाईयां लड़ी। वह किसानों को उनका हक दिलाने के लिए लड़ते रहे। अपसढ़ गांव के विकास के लिए एक मुखिया के रूप में भी बहुत वर्षों तक उन्होंने सेवा की थी।
ज्वाला बाबू की कहानी कवि मिथलेश की जुवानी:-
कवि की मीठी याद है आजादी का पहला दिन:-
– स्कूल जाते समय बिच्छु ने मारा था डंक
अपसढ़ गांव के 80 वर्षीय रामोतार सिंह बताते हैं कि अपसढ़ गांव की आजादी का पहला दिन सामान्य ही रहा। जगह-जगह तिरंगा लहराए गए थे। ग्रामीणों में देश को आजादी मिलने की खुशी थी। गांव के बुजुर्ग ज्वाला बाबू को एक सच्चे समाजवादी क्रांतिकारी के रूप में जानते हैं। जिसने लंबे समय तक जयप्रकाश, रामानंद तिवारी, कर्पूरी ठाकुर व दूसरे बड़े क्रांतिकारियों के साथ काम किया। कवि मिथलेश अपने जीवन की आजादी के पहले दिन को याद करते हुए कहते हैं कि वह हाफ पैंट व शर्ट पहनकर पगडंडियों के सहारे कोसरा (शेखपुरा ) स्कूल जा रहे थे। तभी खेत की मेढ़ पर चलने के दौरान बिच्छु ने डंक मार दिया था।
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सामाजिक सदभाव की मिशाल पेश करता है रामनवमी की शोभा यात्रा
अपसढ़ गांव का सामाजिक परिवेश समृद्ध रहा है। गांव के लोगों में शुरू से ही मेल मिलाप रहा। पर्व-त्योहार के दिनों में सामाजिक एकता देखते बनती थी। युवा किसलय बताते हैं कि गांव के लक्ष्मीनिया टोला में रामनवमी का जुलूस दशकों से उसी उत्साह और भक्तिभाव से भरे माहौल में निकाला जाता रहा है। अपसढ़ गांव का टोला नूरदीचक से लक्ष्मीनिया टोला तक करीब 2 किमी. तक श्रद्धालु रामनवमी के दिन अपने माथे पर ठाकुर जी को लेकर आते हैं। इस बीच पूरे रास्ते श्रद्धा का दीपक जलते रहता है। चैत्र रामनवमी से पूर्णमासी तक पूरा अपसढ़ शाकाहारी रहता है।
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लालटेन युग से उबारकर बिजली पहुंचाने में ज्वाला सिंह का रहा बड़ा योगदान
गांव के बुजुर्ग रामोतार सिंह बताते हैं कि उन दिनों न तो सड़क थी ना ही आज की तरह बिजली। लालटेन युग को रौशनी देने में स्वतंत्रता सेनानी ज्वाला बाबू का बड़ा योगदान रहा। उनके समय में ही गांव तक बिजली पहुंची। वह जगह-जगह पाठशाला चलवाते थे। उन पाठशाला के बच्चों के बीच हाफ पैंट-शर्ट, सिलेट, पेंसिल व किताब मुफ्त में बांटते थे। वह अपने पंचायत के पहले मनोनीत मुखिया रहे। अपनी पंचायत स्तर से ये स्कूली बच्चों के बीच पाठय सामग्री वितरण करते थे। गांव के टोले-मोहल्ले में लालटेन भी बांटे। वह सभी समाज के बच्चों को शिक्षा हासिल करने के लिए प्रयासरत रहे। अनुसूचित जाति टोले में जाकर हैजा, डायरिया के दौरान लोगों को दवाई देकर सेवा की। रविदास टोला के जगदेव रविदास आज भी ज्वाला बाबू को याद करते हैं। कवि मिथलेश बताते हैं कि 1967 के अकाल में ज्वाला बाबू ने वारिसलीगंज में सस्ती रोटी की व्यवस्था कराई थी। खुद महीनों तक मोसाफिरखाना में सोए थे।
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वेबाक और सहज थे ज्वाला बाबू
अपसढ़ के क्रांतिकारी ज्वाला प्रसाद सिंह को नजदीक से जानने वाले शाहपुर के 80 वर्षीय अखिलेश कुमार सिंह बताते हैं कि ज्वाला बाबू बड़े ही सामाजिक जीवन जीने वाले रहे। अंग्रेजों की यातनाओं का ही असर था कि यह झुककर चलते थे। लेकिन उनके अंदर की देश सेवा की भावना हमेशा ही तनी रही। बुजुर्ग अखिलेश कुमार सिंह बताते हैं दिग्घी तालाब के समीप लंबे समय से गणेश मेला लगते आ रहा है। उन दिनों देश आजाद था। दो पक्ष में कुछ विवाद था। जिसे ज्वाला बाबू ने शांत कराया। वह वेबाक और सहज दोनों थे। अखिलेश बताते हैं उन्होंने अपने स्वर्गवासी पिताजी से ज्वाला बाबू के आजादी के अनेकों किस्से सुने हैं। ये सभी आज के युवाओं को प्रेरणा देते हैं।