ज्योतिष/धर्म

आदि शक्ति “माता” जगदम्बा की जय हो।…

अवधेश झा:-महामाया “ब्रह्म” का ही स्वरूप हैं। इसलिए, यह “ब्रह्म माया” के रूप में विद्यमान हैं। ब्रह्म की समस्त क्रिया भाव महामाया के ही अधीन है और यह तमोगुण की अधिष्टिता है तथा त्रयी गुण विशेष हैं। दुष्टों का संहार करने वाली तथा अपने भक्तों को कल्याण प्रदान करती है। समस्त जीव में ब्रह्म जो आत्मा रूप में विद्यमान है, वह जीवात्मा सर्वप्रथम बुद्धि का निर्माण करता है, फिर अहंकार, मन आदि चौबीस तत्वों का निर्माण करता है। जोकि प्रकृति का भाव है। ब्रह्म और प्रकृति के मध्य ही महामाया क्रियाशील रहती हैं, वह समस्त माया की मूल हैं। इन्ही से जगत मोहित होता रहता है। इनकी इच्छा से ही आत्म दर्शन संभव है। क्योंकि, यह ब्रह्म स्वरूप का आवरण की तरह हैं। लेकिन, जो पुरुष आत्म स्थित है, उस पर माया का प्रभाव नहीं होता है।
इसी संदर्भ में एक प्रसंग है; सृष्टि के आरंभ में जब भगवान विष्णु शेषनाग के शैया पर शयन कर रहे थे। उसी समय उनके कान से मधु – कैटभ नाम के दो राक्षस तमोगुण के प्रभाव से प्रकट हुआ और भगवान विष्णु के नाभि कमल में विराजमान ब्रह्मा जी को खाने के लिए दौड़ा तब ब्रह्मा जी अपने ब्रह्म स्वरूप श्री नारायण की सहायता प्राप्त करने के लिए; उनके पलकों पर स्थित “महामाया” की स्तुति किए और भगवान को जागृत करने हेतु आग्रह किया। भगवती महामाया प्रसन्न हुई और भगवान को जगाईं तथा भगवान जागे और मधु कैटभ का संहार किए और इस प्रकार से सृष्टि की उत्पति, स्थिति और प्रलय का आरंभ हुआ।
वास्तव में, क्षीर सागर ही “ब्रह्म सागर” है जो अनंत कोटि में स्थित है और शेषनाग सर्पाकार सृष्टि है तथा उसपर परब्रह्म परमात्मा श्रीहरि अपने स्वरूप स्थिति में स्थित हैं महामाया इस ब्रह्म सम्पूर्ण सृष्टि चक्र में व्याप्त होकर सृष्टि क्रम का संचालन कर रही हैं। यही भगवती ब्रह्मा की माया ब्राह्मणी है, नारायण की नारायणि और शिव की शिवा, गौरी आदि हैं।
सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
नारायणी! तुम सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।
मां जगदम्बा समस्त मंगल प्रदान करने वाली हैं तथा सभी अमंगलो का नाश करने वाली है। सभी प्रकार के भय, दुःख, रोग, व्याधि आदि हरने वाली हैं। दुषित बुद्धि में से दुष्टता हर लेती हैं। सभी हिंसात्मक प्रवृतियों का नाश कर देती हैं और सद्बुद्धि प्रदान करती हैं।
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥
सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है।
ब्रह्मांड, ब्रह्म का स्थूल शरीर है। इसमें, ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है। उसी तरह से हमारा यह शरीर ब्रह्म मंडल ही है। अर्थात ब्रह्म से ही निर्मित है और ब्रह्म में ही स्थित है तथा ब्रह्म से ही संचालित है। इस संचालन में जो शुभ और सुंदर वह ब्रह्ममाया का ही प्रतिफल है। वह महामाया सर्वस्वरूप हैं अर्थात अनंत कोटि रूपों में हैं। लेकिन, उनका वास्तविक स्वरूप महामाया की है, जो अपनी माया से जग को मोहित कर रखी हैं। संसार की समस्त कामनाओं की पूर्ति कर अंत में जीव को इसी माया से मुक्ति दिलाकर आत्म स्वरूप की प्राप्ति करवाती हैं। माता सर्वेश्वरी हैं तथा सभी ईश्वर में जो शक्ति है और सभी ईश्वरीय शक्ति का स्त्रोत माता ही हैं। माता आदि, अनादि और सनातन हैं। लेकिन, इनकी अवस्था हमेशा नित्य यौवन की ही हैं। इसलिए, माता देवी के रूप में विद्यमान हैं। क्योंकि, माता हमेशा ब्रह्म स्थिति में ही रहती हैं और ब्रह्म किसी भी अवस्था से परे है तथा उसकी अवस्था कभी क्षीण नहीं होता है। वह सभी शक्तियों से संपन्न हैं और शक्ति ही जिनकी श्रृंगार है, वह दिव्य स्वरूप माता हमारी सभी भय का नाश करती हैं।
वास्तव में, आत्म स्थिति से जगत स्थिति और जगत से ब्रह्म स्थिति में जो अनंत काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय और अहंकार आदि माया का जो बाधा है, उससे रक्षा माता ही करती हैं। उस माता को कोटि कोटि नमन है।
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।
वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं।
महामाया जो सम्पूर्ण सृष्टि को अपनी माया से मोहित कर रखी हैं। उनका ही प्रभाव समस्त चरा चर में व्याप्त है। माता ज्ञानियों के चित्त में मोह उत्पन्न करती हैं। इसका तात्पर्य है कि ज्ञान का दो स्वरूप है। एक बुद्धि जो आत्मोन्मुख है वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में ही स्थित रहता है तथा दूसरा ज्ञान जो इंद्रिय द्वारा संग्रहित और बुद्धि द्वारा विस्तार किया जाता है, वह संसार का ज्ञान है। सांसारिक ज्ञान से जो मोह उत्पन्न होता है, उससे अनंत संसार का निर्माण होता है। इसलिए, माता संसार की इच्छा रखने वाले को अनंत संसार प्रदान करती है और ब्रह्म की इच्छा रखने वालों का समस्त मोह का नाश कर स्वरूप की स्थिति प्रदान करती है।
जिसका जो स्वरूप स्थिति है, उस स्थिति में रखना ही माता की महामाया की माया है। यह स्थिति ब्रह्म, अब्रह्म या मोह वश भ्रम की स्थिति होती है। ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है – यह ब्रह्म स्थिति है। उसके अतिरिक्त समस्त स्थितियां अब्रह्म या भ्रम की हो सकती है। लेकिन, समस्त स्थितियों में जो शक्ति की परिचालन होता है, उस ब्रह्म शक्ति का स्त्रोत माता ही है। यही माता लंका में श्रीराम को तथा कुरुक्षेत्र में अर्जुन को विजयश्री प्रदान किए। यही माता विष्णु की बहिरंगा (बाहरी) या स्थिति शक्ति हैं। शिव की अर्ध शक्ति और प्रलय शक्ति हैं और ब्रह्म की उत्पति और ज्ञान शक्ति हैं। जहां भी क्रिया है, वहां माता की शक्ति है। बल (आत्म बल, धन बल, शारीरिक बल आदि), विद्या (परा, अपरा ) और बुद्धि (प्रज्ञा बुद्धि, जगत निर्माण की बुद्धि) की शक्ति ही समस्त ऐश्वर्य तथा स्वरूप प्राप्ति का स्रोत है। इस तरह से “या देवी सर्वभूतेषु मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः”! माता समस्त प्रकृति की ब्रह्म गर्भ हैं और उन्हीं की गर्भ से इस सृष्टि का उदय हुआ है तथा समस्त माताओं का गर्भ भी यही माता हैं। इसलिए, माता सभी प्राणियों की माता (मातृ) रूप में स्थित हैं। माता जगदम्बा को कोटि कोटि प्रणाम।

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