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राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्तित्व: डॉ. प्रद्युम्न कुमार सिन्हा…

नवीन कुमार रोशन/जब पूरा विश्व कोरोना के संकट से जूझ रहा था तब देशवासियों को इस त्रासद से उबारने और संसार को उपचार प्रदान करने में यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जो संबल दिया, वह अद्भुत-अलौकिक है। उन्होंने ‘मन की बात’ के द्वारा समय-समय पर जो संदेश संप्रेषित किया, वह हमारे जीवन में मंत्र की तरह कारगर सिद्ध हुआ। इनके चरणबद्ध अभियान से जन-मन की चेतना उद्बुद्ध हुई और हम बहुत कुछ खोकर भी पुनर्स्थापित हो सके। मन की बात मनन-योग्य प्रमाणित हुई और इस विपरीत स्थिति ने हमें, उन्होंने स्वच्छ रहना सिखाया, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया। कोरोना काल में अनेकानेक सामाजिक संस्थाओं ने सेवा का व्रत लिया और हर तरह से श्रमिकों, किसानों, बीमारों और जरूरतमंदों के लिए त्याग और समर्पण का बाना धारण किया। प्रधानमंत्री जी के जादुई प्रभाव का ऐसा प्रभा-मण्डल है कि उनके पथ का अनुशरण करके अनेकानेक व्यक्तित्व सामने आए जिनमें से एक नाम डॉ. प्रद्युम्न कुमार सिन्हा का भी है। इन्होंने राष्ट्र सृजन अभियान के माध्यम से राष्ट्र-हित के लिए सृजनात्मक अर्थात् सकारात्मक अनेक कार्यों का न केवल संवहन किया, वरन् कोरोना काल में जिन्होंने भी कर्मठता, ईमानदारी और निस्वार्थ ढंग से सेवा-कार्य किया, उन्हें ‘कोरोना कर्मवीर सम्मान’ से नवाज कर उनकी हौसला-अफजाई की। इनके नेतृत्व में समर्पित सेवा-भावियों की टीम ने समाज और राष्ट्रहित में प्रधानमंत्री को प्रेरक मान कर जो कार्य संवाहित किया, उससे लोग सुपरिचित हैं।

डॉ. सिन्हा को विदित है कि सत्पथ और राष्ट्र-हित की सराहना सभी करते हैं लेकिन उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए लोग सामने नहीं आते। वे तो चाहते है कि भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद उनके यहाँ नहीं, पड़ोसियों के यहाँ जन्म लें। ऐसी संक्रमण की संस्थिति में वे ‘एकला चलो’ के सिद्धांत को अपनाते हैं। उनकी देखा-देखी कुछ समर्पित मित्र भी जुड़ते हैं और उनकी धर्मपत्नी और संतानें भी साथ देने लगती हैं। इस तरह काफिला बनने लगता है और व्यक्तित्व सँवरने लगता है। डॉ. सिन्हा को दादाश्री बाबू रामविलास सिंह जी से विरासत में राष्ट्र सृजन अभियान का जो दायित्व मिला, उसका कुशलता और मनोयोग से निर्वाह कर उसे आगे बढ़ाने में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। वस्तुतः स्मृति शेष बाबू रामविलास सिंह राष्ट्र सृजन अभियान के संस्थापक, महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, राष्ट्र-भक्त, देश के उज्ज्वल विकास के हिमायती व स्वप्नद्रष्टा, समाजसेवी, किसान नेता के साथ विचारक, विमर्शक, चिंतक, दार्शनिक और अध्यात्म से आप्लावित विलक्षण व्यकितत्व के धनी थे। इनका आचरण करते हुए उन्होंने स्वतः राष्ट्र के कर्णधार के रूप में उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज की है। श्रीमद् भगवद्गीता में जिसे ‘निष्काम भाव’ से कर्मरत् होने का मंत्र दिया गया है, उसका पालन करते हुए डॉ. प्रद्युम्न जी सच्चे कर्मयोगी के रूप में विश्व-विख्यात हुए हैं।
यह सर्वविदित है कि पूरे संसार में एक ही सनातन धर्म है, शेष सब संप्रदाय, मत, मजहब, पंथ हैं। इसके ही प्रसार और प्रचार के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सनातन धर्म रक्षार्थ समर्पित संगठन ‘सनातन धर्म रक्षा संघ’ की स्थापना समयोचित है। इससे भारतीयों में अस्मिता और अस्तित्व के अनुसांधान का न केवल आकलन होगा वरन् सनातन धर्म के संरक्षण-संवर्धन की दिशा में चेतना भी जागृत होगी। विडम्बना है कि भारतीय अपने धर्म-ग्रंथों से अनजान है, इसीलिए उसे कर्मकाण्डी या अंधविश्वासी निर्दिष्ट करके अपमानित करने से बाज नहीं आते। धर्म और अध्यात्म को समझकर व जीवन में उतारकर ही सनातनी धर्म को संवर्धित किया जा सकता है। इस दिशा में डॉ. सिन्हा का अवदान अविस्मरणीय है।
डॉ. सिन्हा इस तथ्य से भिज्ञ है कि अध्यात्म और संस्कृति के बिना भारत को समझा नहीं जा सकता। यहाँ का धर्म भी सनातनी है और संस्कृति भी समृद्ध और संपन्न है। दोनों में वैज्ञानिकता का पुट है और इसी आधार पर हम पहले भी जगद्गुरू थे और अब भी इसी आधार पर विश्व गुरू बनने की दिशा में अग्रसर हैं। हमारा धर्म सनातन है अर्थात् शाश्वत है। यही धर्म का भीतरी तत्व अर्थात् आत्मा है जो अजर-अमर है और अपरिवर्तनीय भी।
डॉ. सिन्हा में नेतृत्व की क्षमता है इसलिए नायकत्व को सहजतः निर्दिष्ट करा देते हैं। ‘नी-नयति’ अर्थात् जो अपनी ओर ले जाए या चुम्बक की तरफ खींचने की क्षमता विकसित कर जाए, वही नायक की तरह मुख्य धारा में आकर नेतृत्व को निष्पन्न कर सकता है। यह गुण सहज और प्राकृतिक रूप से प्रस्थापित होता है। इसके लिए संस्कारजन्य आचरण, कर्त्तव्यनिष्ठा, एकाग्रता, धैर्य, समर्पण, सहनशीलता, सदाचारिता, अध्यवसाय और समग्र समर्पण अपरिहार्य है। ये गुण सुभाष चंद्र बोस में थे इसीलिए वे नेतृत्व के मापक हैं – एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत हैं। आज के नेताओं के प्रति वह श्रद्धा व आसक्ति नहीं है क्योंकि वे ‘स्व-अर्थी’ हैं। इस निकष पर सच्चे देश-भक्त दुर्लभ हैं। अपने सात्विक गुणों के आधार पर देश-सेवा का जज्बा लिए, अपनी सीमा और क्षमता के साथ क्रमशः राष्ट्र-हित की ओर अग्रसित व्यक्तित्व जन आकांक्षाओं का केंद्र-बिंदु प्रमाणित होकर नेतृत्व को निर्दिष्ट करा देता है। इसके लिए आवश्यक नहीं कि वह किसी पद या कद को धारण करे। स्व-हित से निरत् व्यक्ति परहित की ओर प्रस्थित होकर और राष्ट्र-कर्म को संधारण कर नेतृत्व को संधारण कर सकता है। इस दृष्टि से जननायक के रूप में डॉ. सिन्हा के व्यक्तित्व और अवदान को परिभाषित किया जा सकता है।
‘राष्ट्र’ को भौगोलिक सीमा में निरखना-परखना बाह्य दृष्टि से भले उचित हो, आंतरिक दृष्टि से कदापि ठीक नहीं है। हम जिस भूखण्ड में रहते हैं, वह हमारी मातृभूमि है और राष्ट्रभूमि भी। ‘लोकल से ग्लोबल’ की ओर प्रस्थित हमारी राष्ट्रीयता वसुधैव कुटुम्बकम्’ को लेकर चलती है। इस तरह वह मानव, मानव में भेद नहीं करती। जातिपाँति, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, संपन्न-विपन्न, छोटे-बड़े का भेद सीमित-संकुचित दृष्टि है जो राष्ट्र-हित की बाधक है, साधक नहीं। इस तरह भारतीय राष्ट्रवाद अपने साथ पूरे संसार को समेटने का संयोजन है। वह मानव-मूल्य का संधान करके मानवता का मान रखती है इसीलिए वह सबके लिए ग्रहणीय है, जन-मन के लिए अनुकरणीय है। डॉ. सिन्हा व्यक्ति से समाज, क्षेत्र, प्रदेश व देश से ऊपर उठकर विश्व-मानवता की संकल्पना में विश्व-गुरू का स्वरूप देखते हैं। यही दृष्टि राष्ट्र को उत्कर्ष पर ले जाती है।
एक सच्चा देश-भक्त हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित देखना चाहता है। हिंदी ही देश की बहुसंख्यक लोगों की आशा-आकांक्षाओं और सुख-दुख की अभिव्यक्ति है। यह एक साथ मातृ-भाषा भी है, राजकाज की भाषा, राजभाषा भी है, संपर्क भाषा भी है, बाजार की भाषा भी है और राष्ट्र की वाणी के रूप में ‘राष्ट्रभाषा’ भी है। स्वतंत्रता आंदोलन में साहित्य और पत्रकारिता के प्रश्रय से (हिंदी के माध्यम से) आजादी मिली। हिंदी ने राज्याश्रय नहीं स्वीकारा लेकिन लोकाश्रय के बल पर यह लोगों के कंठ में वसित है। इस तथ्य के सचेतक डॉ. प्रद्युम्न कुमार सिन्हा हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में अंगीकार कर अलख जगा रहे हैं। प्रधानमंत्री के ‘सबका साथ-सबका विकास’ के नारे को बुलंद करने के लिए वे एक ध्वज, एक न्याय-व्यवस्था और एक राष्ट्रभाषा की पक्षधरता को ग्रहण करते हैं। डॉ. सिन्हा की मान्यता है कि देश में सबके लिए समान आचरण-संहिता की आवश्यकता युग की मांग है और इसी आधार पर देश का सम्यक् विकास संभव है। शिक्षा और समाज-सेवा के माध्यम से वे तीन दशकों से इसी विचारधारा को प्रश्रय प्रदान कर रहे हैं।
डॉ. सिन्हा प्रख्यात लेखक भी हैं। उन्होंने आधुनिक व प्रगतिशील समाज के लिए कलम का आश्रय ग्रहण किया। युगीन संदर्भों पर ध्यान केंद्रित करते हुए उन्होंने जहाँ ‘जीवन प्रबंधन’ के माध्यम से सार्थक लेखन की अभिव्यक्ति की, वहीं ‘वे दिन वे लोग’ के माध्यम से अतीत की सुखद क्षणों से महत् चरित्रों को केंद्रस्थ करके जन-मन को दीक्षा दी। धरतीपुत्र डॉ. सिन्हा ने गौ-सेवा को समाज व राष्ट्र के लिए अपरिहार्य समझा तथा इसे कृषि के संयुक्त घटक के रूप में लोकजीवन से जोड़ने का प्रयास किया। उन्हें विदित है कि बलराम हलधर हैं और श्रीकृष्ण गो-पालक। इस तरह कृषक जीवन की पूर्णता गो-पालन से ही संभव है। भारतीय संस्कृति में गाय को माता का स्थान दिया गया है। इस तरह उसकी उपयोगिता और सार्वजनियता को संधारण कर डॉ. सिन्हा जी ने ‘गाय माता: धरती की जन्नत’ लिखकर महत्वपूर्ण स्थापना दी है।
डॉ. सिन्हा राष्ट्रकवि दिनकर के काव्य-व्यक्तित्व से अनुप्राणित हैं। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास को पुनर्स्थापित करने और राष्ट्र-भक्ति के वातावरण बनाने के लिए सम्बद्ध आपका बहुआयामी व्यक्तित्व राष्ट्रीयता पर आधारित है। एक सच्चे देशभक्त के रूप में डॉ. सिन्हा जहाँ संस्कृत भाषा की विश्वव्यापी महात्म्य को स्वीकारते हैं, वहीं मातृभाषा मगही को विश्व-पटल पर स्थापित करने और देश की आत्मा अर्थात् आत्माभिव्यक्ति के रूप में हिंदी को विश्व-स्तर पर अंगीकार भी करते हैं। इस तरह वे परिवेश से परिवेष्टित होकर संस्कृति को सहेजने और सभ्यता को स्वीकारने की पक्षधरता के हिमायती हैं। स्पष्ट है, भाषा के संदर्भ में उनकी धारणा राष्ट्रीयता से संयुक्त है। वे परम्परा को ध्वस्त करके प्रगतिशीलता का भवन स्थापित करने के हिमायती नहीं हैं। उनकी इच्छा है कि परम्परा को प्रोन्नत करके ही प्रगतिशीलता के पथ को प्रशस्त किया जाए। यही सच्चे अर्थाें में भारतीयता है और डॉ. प्रद्युम्न कुमार सिन्हा इस सत्पथ के प्रबल समर्थक हैं। ऐसे विलक्षण प्रतिभा के धनी डॉ. सिन्हा जी को जन्मदिन पर बधाई और हार्दिक शुभकामनाएं भी कि वे अपने ध्येय में सफलीभूत होकर एक सही और सार्थक दिशा की ओर समाज व राष्ट्र को समुन्नत करें।

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