किशनगंज : जीवित्पुत्रिका व्रत त्याग-श्रद्धा का पर्वः श्री महाकाल जी आनंद

किशनगंज/धर्मेन्द्र सिंह, जीवित्पुत्रिका (जिउतिया ) व्रत सनातन धर्म में बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ किये जाने वाले पर्वों में से एक है। इस सम्बन्ध में श्री महाकाल जी आनंद, दीपक जी महाराज ने सुगमतापूर्वक बतलाया कि: जीवित्पुत्रिका व्रत को अपनी संतान की मंगलकामना के लिए किया जाता है। इस पर्व को अधिकतर भारत के पूर्वी हिस्सों और उत्तर के कुछ हिस्सों तथा पड़ोसी देश नेपाल बहुत ही श्रद्धा के साथ किया जाता है। इस दिन निर्जला उपवास किया जाता है, जिसे माताएँ अपनी संतान की उज्ज्वल भविष्य तथा सुदीघार्य के लिए रखती है। हर वर्ष की भांति इस वर्ष जीवित्पुत्रिका व्रत 17 सितम्बर 2022 को रखा जाएगा। मिथिला व काशी पंचांग में थोड़ा-बहुत तिथि का अन्तर है। इसलिए व्रत को लेकर संशय है कि 17 सितम्बर या 18 सितम्बर को किस दिन व्रत किया जाय। इस सन्दर्भ में कहना कि व्रति अपने कुल पुरोहित परामशानुसार उक्त तिथि को व्रत रखें। बनारसी पंचांग के साथ मिथिला पंचांग में व्रत का समय अलग-अलग दिया गया है। इस बार मिथिला पंचांग के अनुसार व्रती 16 सितंबर, शुक्रवार को नहाए खाए एवं 17 को व्रत रखेंगी और 18 की संध्या में झिंग्ली में फूल खिलने के बाद पारण करेंगी। वहीं बनारसी पंचांग के अनुसार श्रद्धालु 18 सितंबर को जिउतिया व्रत करेंगी और 19 सितंबर को सुबह सूर्योदय के बाद पारण करेंगी। जिउतिया पर्व का मुख्य दिन अष्टमी तिथि का दिन होता है। उस दिन निर्जला व्रत किया जाता है। इससे एक दिन पूर्व यानी सप्तमी तिथि को नहाय-खाय होता है। जबकि अष्टमी तिथि के अगले दिन नवमी तिथि को व्रत का पारण किया जाता है। जीवित्पुत्रिका व्रत के पहले दिन यानी नहाय खाय को माताएँ प्रातः काल ब्रह्म मुहूर्त में जगकर पूजा-पाठ करती है और एक बार भोजन करने के बाद पूरे दिन कुछ नहीं खाती है। व्रत के दूसरे दिन को खर-जिउतिया कहा जाता है। यह जिउतिया व्रत का मुख्य दिन होता है। इस दिन माताएँ जल भी ग्रहण नहीं करती है और पूरे दिन निर्जला उपवास रखती है।नहाय-खाय के दिन माताएँ मुख्य रूप से मडुवा की रोटी और तली हुई मछली ग्रहण करती है। अश्विन माह के कृष्ण अष्टमी को प्रदोष काल में माताएँ जीमूत वाहन की पूजा करती है। पूजन के लिए जीमूत वाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धूप-दीप, चावल व पुष्पादि अर्पित कर पूजा-अर्चना करती है। इसके साथ ही मिट्टी तथा गाय की गोबर से चली व सियारिन की प्रतिमा बनाई जाती है। जिसके माथे पर सिन्दूर का टीका लगया जाता है। पूजा सम्पन्न होने के तत्पश्चात जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुनी जाती है। पुत्र की सुदीघार्य, आरोग्य तथा कल्याण की कामना से माताएँ इस व्रत को करती है। इस पर्व से एक विशेष पौराणिक नहाय-खाय 17 सितंबर, शनिवार कथा जुड़ी हुई है, जिसके अनुसार एक बार एक जंगल में चील और लोमड़ी घूम रहे थे वही कुछ माताएँ इस व्रत और कथा के बारे में बातें कर रहे थे। चील ने सभी बातों को ध्यान से सुना जबकि लोमड़ी चुपचाप वहाँ से चली गईं। चील ने इस व्रत को सुनने के बाद पूर्ण श्रद्धा से रखा जिसके फलस्वरूप उसकी संतानें सही सलामत रही जबकि लोमड़ी की एक भी संतान जीवित नहीं रही। इसी कारण माताएँ इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ संतान के मंगलकामना के लिए करती है।