पार्ट ७: कहाँ गए वो दिन?

लेखक:- बिहार प्रदेश के पूर्व महानिदेशक की कलम से
बीसवीं शताब्दी के मध्य की बात है। भारत की आज़ादी को कुछ वर्ष ही हुए थे। संविधान में उल्लेखित दोनों सेवाएँ IAS और IPS का सृजन हो चुका था। UPSC प्रति वर्ष, बहुत थोड़ी संख्या में, इन पदाधिकारियों की नियुक्ति करती थी। कम संख्या में यह विलक्षण प्रतिभा के लोग परीक्षा में उत्तीर्ण होकर विशालकाय ज़िलों के DM, SP का पद संभालते थे। आम आदमी को भी उनकी निष्पक्षता पर पूरा भरोसा हुआ करता था।
मेरे स्वर्गीय पिताश्री श्री जगदानंद भी आज़ादी के शुरुआती दौर के IPS थे। उनका पदस्थापन सारण ज़िले में SP के रूप में हुआ।
हाई स्कूल और कॉलेज में कुछ वारदातों का उल्लेख करते थे, जो मुझे अपनी पुलिस की सेवा काल में, अपनी यात्रा के दिशा निर्धारण में काफ़ी सहायक सिद्ध हुआ।प्रातः बेला थी। पिताजी SP के आलीशान बँगले के वृहद मैदान में बैठे हुए थे। तत्कालीन के एक कैबिनेट मंत्री, जो उस ज़िले के रहने वाले थे, वो पधारे। पिताजी ने उन्हें सम्मानपूर्वक कुर्सी पर बिठाया और कष्ट करने का कारण पूछा। उन्होंने दूर पर खड़े एक व्यक्ति की ओर इशारा किया और उसकी समस्या के सम्बन्ध में बताया। इसके पहले कि पिताजी कुछ उत्तर देते, माननीय मंत्री जी ने उन्हें रोकते हुए कहा, “SP साहब, आप एक पदाधिकारी हैं और मैं जनप्रतिनिधि। आपसे निष्पक्षता की अपेक्षा रहेगी। मैंने आपके समक्ष उसका पक्ष रखा है क्योंकि यह व्यक्ति मेरा कंस्टीटूएंट है। आपसे उम्मीद होगी कि आप दोनों पक्षों को सुनकर ही फ़ैसला लेंगे।”अपनी बात कह कर वे चले गए। उनकी चाय भी विलंब से आई।मेरे स्वर्गीय पिता के मन में उनके लिए प्रगाढ़ सम्मान बना जो उनकी पूरी ज़िन्दगी रहा। बड़े सम्मान से वह उनकी चर्चा किया करते थे।मेरी ज़िन्दगी में भी राजनीतिज्ञों का मापदंड वही रहा। मेरी मुलाक़ात दुर्भाग्यवश उनसे कभी नहीं हुई।काश राजनीतिज्ञों और पदाधिकारियों का रिश्ता इसी पैमाने पर नापा जाता।
सुशासन प्रत्यक्ष दिखता।