*पतंग की डोर*

कविता : तेज नारायण राय
बचपन में पतंग उड़ाते
जब कट जाती थी पतंग की डोर
और जा गिरती थी
गांव की सीमा से दूर
किसी पेड़ की फुंनगी पर
तब पतंग के पीछे
दोस्तों के साथ दौड़ लगाते
हमें पता नहीं था कि
जिंदगी भी एक पतंग है
जो कभी आशा और उम्मीद के आसमान में उड़ती है ऊंचाई पर
तो कभी यथार्थ की जमीन पर
आ गिरती है नीचे
और कभी-कभी तो ऐसा होता है
ना ऊपर उड़ पाती है
ना तो नीचे ही गिरती है बल्कि
किसी बिजली के खंभे की तार से लटक कर झूलती रहती है
अब जबकि बचपन की पतंग
छूट गई है बहुत पीछे
स्कूल के बाहर किसी पेड़ पर
लटक रही होगी कहीं
या फिर किसी बिजली के खंभे में झूल रही होगी पता नहीं
लेकिन कैसे बताऊं कि आज
उसकी डोर जीवन में
उलझन बनकर उलझ गई है
कभी-कभी सोचता हूं कि
ये जो दौलत की डोर से बंधी
महत्वाकांक्षा की पतंग
उड़ने वाले दौलतमंद लोग हैं
एक दूसरे की पतंग काटने की होड़ में लगे ठहाका लगाते हुए
उन्हें पता है भी की नहीं कि
उनके जीवन की पतंग की डोर भी
बंधी है किसी एक ऐसे अदृश्य हाथों में जो कभी भी समेट सकती है
उसकी डोर
और महत्वाकांक्षा के आसमान में
ऊंचाई पर उड़ने वाली पतंग भी अचानक कट कर गिर सकती है नीचे शायद उन्हें पता है भी की नहीं !