सुधरेगी सरकारी शिक्षा व्यवस्था, मिलकर करें पहल…

भारत मे सरकारी विद्यालयों के शिक्षा में सुधार करने के लिए सरकार के तरफ से बहुत प्रयास किए जा रहे है लेकिन धरातल पर पहुँचते पहुंचते उसके स्तर में भारी गिरावट हो जाती है।2004 की ग्लोबल एजुकेशन रिपोर्ट में विश्व के 127 देशों में भारत का स्थान 106वां है।विश्व की 10 सबसे तेज विकास करने वाली शक्तियों में शुमार भारत में अभी भी लगभग 40% लोग अशिक्षित या अल्प-शिक्षित हैं। स्वतंत्रता के 70 साल बीत जाने के बाद भी आज भारत के सामने गरीबों को शिक्षित करने की चुनौती बनी हुई है।किसी भी देश को विकसित करने का एकमात्र जरिया शिक्षा है।भारत मे इसको आम आदमी तक पहुंचाने के लिए 2009 में राइट टू एजुकेशन का प्रावधान किया गया है।6 से 14 वर्ष के बच्चों की शिक्षा जरूरी कर दी गई है,उद्देश्य पूरे भारत में शत-प्रतिशत साक्षरता को प्राप्त करना है।2013 में मानव विकास मंत्रालय द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष पूरे देश में 5वीं तक आते-आते करीब 23 लाख छात्र-छात्राएं स्कूल छोड़ देते हैं।देश में करीब 20 करोड़ बच्चे प्रारंभिक शिक्षा हासिल कर रहे हैं। शिक्षा अधिनियम (RTE) लागू हुए करीब 9 वर्ष हो गए हैं लेकिन अभी भी सरकारी स्कूलों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हो रहा है।सरकारी विद्यालयों की दशा अत्यंत दयनीय है।2 या 3 राज्यों की बात छोड़ दे तो शेष राज्यों में शिक्षा की दशा, दुर्दशा बनती जा रही है।सरकारी स्कूलों में छात्र संख्या तो बढ़ रही है लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता रसातल में जा रही है।इन विद्यालयों में सिर्फ वे ही छात्र आते हैं जिनके मां-बाप मजदूरी करते हैं एवं वे अपने बच्चो को सिर्फ इसलिए प्रवेश कराते हैं कि उनको छात्रवृत्ति मिलेगी।भारत की शिक्षा व्यवस्था दो भागों में विभाजित है-शहरी एवं ग्रामीण।शहरी क्षेत्रों में निजी स्कूलों के कारण शिक्षा व्यवस्था बेहतर है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों की स्थिति अत्यंत सोचनीय है।ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यालय अत्यंत उपेक्षित हैं।इसके कई कारण हैं।ग्रामीण इलाको के विद्यालयों में शिक्षा के लिए मूलभूत सुविधाओं की स्थिति अत्यंत खराब है।यहां पर कक्षा के कमरे, प्रयोगशालाएं, शौचालय, फर्नीचर, ब्लैक बोर्ड, खेल के मैदान एवं पीने की पानी की सुविधाएं नहीं हैं और अगर हैं भी तो बहुत खराब स्थिति में हैं।माता-पिता लड़कियों को इन विद्यालयों में भेजने में हिचकते हैं।यहां के सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है, यहां तक कि शहरी क्षेत्रों में भी विषयवार शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं विशेषकर गणित, विज्ञान एवं अंग्रेजी के शिक्षकों की कमी शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने में आड़े आ रही है।बच्चे स्कूल में उपस्थित नहीं रहते, क्योंकि माता-पिता बच्चे का नाम लिखवाकर उसे स्कूल भेजने की बजाय अपने साथ मजदूरी पर ले जाते हैं एवं कभी-कभार ही वह विद्यालय आता है।शिक्षक भी अपनी मनमानी से ड्यूटी करते है साथ ही साथ शिक्षकों को गैर-शिक्षकीय कार्यों जैसे चुनाव, सर्वे, जनगणना, मध्याह्न भोजन, पशुगणना इत्यादि कार्यों में लगाया जाता हैं जिससे वह स्कूलों में समय नहीं दे पाते है।पाठ्यक्रम विसंगतिपूर्ण एवं छात्रों के मानसिक स्तर से कहीं अधिक कठिन होता है जिससे उनका मन पढ़ने में नहीं लगता एवं कई पाठ्यवस्तुएं उनकी समझ से बाहर होती हैं।अधिकतर छात्र गरीब मजदूर परिवार के होते हैं अत: उनके माता-पिता या तो निरक्षर या बहुत कम पढ़े-लिखे होते हैं जिससे वे छात्रों की मानसिक स्तर पर कोई सहायता नहीं कर पाते हैं।शिक्षकों में भी कई कैटेगरी होते है,समान काम समान वेतन न मिलने से अधिकतर समय वह धरना प्रदर्शन में ही बीता देते है या यूं कहें स्कूल में रहकर भी पढ़ने में दिलचस्पी नहीं लेते।सरकारी विद्यालयों में आय के कोई स्रोत नहीं हैं।वित्तीय कमी मूलभूत सुविधाओं को जुटाने में आड़े आती है।सरकारी स्कूलों की यह दुर्दशा सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक एवं नौकर शाही व्यवस्था लाचार से हुआ है।अगर सरकार और प्रशासन चाह ले तो यह दिन देखने को दूर नहीं कि हमारा सरकारी स्कूल सबसे बेहतर हो सकता है।अगर जिले का डीएम का बेटा,एसपी का बेटा या अन्य पदाधिकारी का बेटा और राजनेता के बेटा सरकारी स्कूल में जाने लगेंगे या दुर्दशा सुधरते देर नहीं लगेगी।सरकारें पूरी शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही हैं।शिक्षा को निजी हाथों में देना इसका हल नहीं है।निजीकरण करने से ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के शिक्षण के बीच खाई और बढ़ जाएगी।निजीकरण से शिक्षा महंगी होगी एवं गरीब मजदूर बच्चे शिक्षा से वंचित होंगे।