समाजिक सद्भावना का प्रतीक है छठ महापर्व:-नीतीश

पटना छठ पर्व दीपावली के छठे दिन मनाया जाता है। बिहार में प्रचलित यह व्रत अब देश विदेश मे हर उस जगह मनाया जाता है,जहाँ बिहार या उसके आस पास के लोग रहते है।इस पर्व को स्त्री व पुरुष समान रूप से मनाते हैं और छठ मैया से पारिवारिक सुख-समृद्धी तथा मनोवांछित फल प्राप्ति के लिए प्रार्थना करते हैं।कई लोग अपनी मन्नत पूरी होने पर भी यह व्रत उठाते हैं और आजीवन या जब तक संभव हो सके यह व्रत करते हैं।छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से शुरू होता है और सप्तमी तिथि को इस पर्व का समापन होता है।पर्व का प्रारंभ ‘नहाय-खाय’ से होता है, जिस दिन व्रती स्नान कर अरवा चावल, चना दाल और कद्दू की सब्जी का भोजन करती हैं।इस दिन खाने में सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है।नहाय-खाय के दूसरे दिन यानि कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी के दिनभर व्रती उपवास कर शाम में स्नानकर विधि-विधान से रोटी और गुड़ से बनी खीर का प्रसाद तैयार कर भगवान भास्कर की आराधना कर प्रसाद ग्रहण करती हैं।इस पूजा को ‘खरना’ कहा जाता है।इसके अगले दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को उपवास रखकर शाम को व्रतियां टोकरी (बांस से बना दउरा) में ठेकुआ, फल, ईख समेत अन्य प्रसाद लेकर नदी, तालाब, या अन्य जलाशयों में जाकर अस्ताचलगामी सूर्य का अघ्र्य अर्पित करती हैं और इसके अगले दिन यानि सप्तमी तिथि को सुबह उदीयमान सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर घर लौटकर अन्न-जल ग्रहण कर ‘पारण’ करती हैं, यानी व्रत तोड़ती हैं।आजकल कई लोग पूछते हैं कि सबको छठ पर गाँव जाने की क्यों पड़ी है।छठ में हम इसलिए जाते हैं ताकि जो घर ख़ाली कर आए हैं उसे फिर से भर सकें। छठ ही वो मौका है जब लाखों लोग अपने गांव घर को कोसी की तरह दीये और ठेकुए से भर देते हैं।गांव गांव खिल उठता है।इस खुशी के लिए ही वो इतनी तकलीफदेह यात्राएं करते हैं।छठ गांवों के फिर से बस जाने का त्योहार है।आप जाकर देखिये गांवों में कहां कहां से लोग आए होते हैं।हिन्दुस्तान का हर हिस्सा बिहार में थोड़े दिनों के लिए पहुंच जाता है।हम बिहारी लोग छठ से लौट कर कुछ दिनों बाद फिर से ख़ाली हो जाते हैं।छठ आता है तो घर जाने के नाम पर ही भरने लगते हैं।इसलिए इस मौके पर घर जाने को कोई दूसरा नहीं समझेगा।किसी समाजशास्त्री ने भी अध्ययन नहीं किया होगा कि क्यों छठ के वक्त घर आने का बुलावा आता है।सबको पता है बाहर की नौकरी और ज़िंदगी एक दिन इस रिश्ते को कमज़ोर कर देगी फिर सबकुछ हमेशा के लिए छूट जाएगा। छठ ही वो आख़िरी गर्भनाल है जो इस रिश्ते को छूटने नहीं देता।बाकि अन्य त्यौहारों को हम अपने कार्य-स्थल वाले जगह से मना लेते हैं…दशहरा, दिवाली, होली।लेकिन छठ पूजा के लिए बर्बस ही अपनी मिट्टी की ओर खिचें चले आते हैं।वजह क्या है ? क्या शहरों मे वो सभी पूजा सामग्री नही मिलता जो गाँवो मे मिलता है ? आजकल शहरों मे सबकुछ मिल जाता है पैसे से…अपनो का साथ और प्यार के अलावा।हम अपनी रोजी -रोटी के लिए गाँव ही नही अपनी संस्कृति, एक संयुक्त संस्कारी परिवार के साथ, समरस समाज छोड़ आए हैं…जिसे वापस सजोने की जरूरत है, और इसका माध्यम छठ -पूजा जैसे स्वच्छता एवं अनुशासन का संदेश देने वाले पर्व बन सकते हैं।जिस गाँव मे हमने जन्म लिया, उस गाँव को हमने वापस क्या दिया ? जब हम छठ पूजा की सामग्री खरीदने बाजार जाते है…तब हमे एहसास होता है गाँव के लोगो का दर्द, जिस पूजा मे हम पहले बाँस से बनी सिपुली और दउरा का प्रयोग करते थे, जिसके व्यवसाय से बाँसफोर समाज का परिवार चलता था, उसकी जगह हम पीतल का सिपुली खरीद लिए, प्लास्टिक का दउरा ताकि बार-बार न खरीदना पडे़।महँगाई के साथ संघर्ष करने मे हम ये भूल गए की जाने-अनजाने मे हमने एक समाज के जीवकोपार्जन पर संकट खडा़ कर दिया।फिर कैसे बचेगी संस्कृति ? कुम्हार के मिट्टी के दियों की जगह इलेक्ट्रॉनिक विदेशी झालरों ने ले लिया, तब कैसे करेंगे अपने गाँवों को सशक्त ? न गुरूकूल की शिक्षा गायब, माँ-बाप के पास समय नही है कि कुछ पल अपने बच्चों के साथ बिताकर अपने सभ्यता और संस्कृति के बारे मे उनका ज्ञानवर्धन करें, तो आपको यह कहने का हक किसने दिया कि आजकल की युवा पिढी़ गाँव और परिवार से दूर होती जा रही है, उनके लिए त्यौहारों का मतलब केवल छूट्टियाँ है, जिसे वे सिनेमा देखकर या कहीं घूम कर बिता देते हैं।छठ का पर्व पुरे परिवार और समाज की सहभागिता का पर्व है-जो आज के नेताओ की तरह समाज को जातियों और उप जातियों मे बाँटने की बात नही करता बल्कि सभी धर्मो को एक साथ मिलजुल कर रहने की प्रेरणा देता है।इस पूजा मे प्रयोग होने वाले विभिन्न सामग्रियों को जब हम बाजार से खरीदने जाते हैं तो दूकानदार से उसका धर्म नही पूछते।जैसा की हम सभी जानते है की इस पर्व मे भगवान सूर्य की आराधना की जाती है, तो भगवान सूर्य अपने प्रकाश से सम्पूर्ण विश्व को प्रकाशित करते है, किसी के साथ भेदभाव नही करते।यही हमारी संस्कृति है जिससे विदेशों के लोग प्रेरणा लेते हैं जिसे बचाकर रखने की जरूरत है।
रिपोर्ट-श्रीधर पाण्डे