R.T.Iराज्य

आरटीआई की धारा 4 पर विशेष…

सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 नागरिकों के अधिकार की ताकत है जो संविधान मे प्रदत्त सभी तरह के अधिकारों की लीक से हटकर जानकारी प्राप्त कराने का एक कानून है।यह भ्रष्टचार को रोकने और उससे लड़ने के लिए एक प्रमुख साधन के रूप में काम कर रहा है।देश की सभी प्रमुख इलेक्ट्र्रानिक/प्रिंट मीडिया के लोग लगातार आरटीआई कानून तथा उसकी उपलब्धियों के बारे में नागरिकों को जानकारी प्रदान करने से किसी भी तरह पीछे नहीं हैं। लेकिन पिछले वर्षों में संसद की कार्यवाही के अनुभवों एवं सूचना आयोगों के निर्णयों से पता चला है कि अधिनियम के लागू करने में अगाध धनोपार्जन करने वाले राजनीतिक दल भारी विकृतियां पैदा करने पर आमादा हैं।सच मानिए तो अधिनियम की धारा ४ इसकी आधारशिला ही नहीं बल्कि पूरे अधिनियम की आत्मा है। जैसे प्राण के बिना शरीर का कोई महत्व नहीं है ठीक उसी तरह अधिनियम की धारा ४ में दिये गये प्राविधानों के अनुपालन के बिना लोक प्राधिकरण के नर्वस सिस्टमको सही नहीं रखा जा सकता। इस धारा का भी अपना एक उद्देश्य है।अधिनियम की धारा 4 (A) में कहा गया है कि,‘‘प्रत्येक लोक प्राधिकारी अपने सभी अभिलेखों को सम्यक् रूप से सूचीपत्रित तथा सूचीबद्ध इस ढंग से तथा उस प्रारूप पर करायेगा जिससे इस अधिनियम के अधीन प्रावधानित है और एक युक्तिसंगत समय के दौरान तथा साधनों की उपलब्धता के अधीन, सभी अभिलेख उचितत: कम्प्यूटराइज्ड कर लिये जायें, ऐसे अभिलेखों तक पहुँच की सुविधा के लिए उसे कम्प्यूटराइज्ड तथा सम्बन्घित करायेगा जिससे नेटवर्वâ के माध्यम से सम्पूर्ण देश के विभिन्न भागों में प्राप्त किया जा सके।’’ उसी तरह अधिनियम की धारा 4 (ख) में कहा गया है कि इस अधिनियम के लागू होने के दिन से एक सौ बीस दिन के दौरान प्रकाशित करायेगा जिससे नेटके माध्यम से संम्पूर्ण देश के विभिन्न भागों में प्राप्त किया जा सके।’’सूचना के अधिकार अधिनियम के महत्वपूर्ण पहलुओं के अधीन अभी सरकारी/अद्र्ध सरकारी संगठनों, केंद्र और राज्य में गठित आयोगों द्वारा अभी भी आवेदन कर्ताओं के हकों पर सही तौर से ध्यान नहीं दिया जा रहा है। आज सरकारी संगठनों के पास जानकारी हासिल करने से संबधित आवेदनों का भण्डार लगा हुआ है। सूचना आयोगों को जल्द ही एक व्यवस्था के तहत ऐसे आवेदनों के त्वरित निस्तारण पर विचार करने के लिए आगे आना होगा। अगर ऐसा नहीं किया गया तो लंबित मामलों के निपटान को लेकर सिस्टम बेकार बना रहेगा। आज अगर चुनौती है तो यह कि सभी सार्वजनिक लोक प्राधिकरण सामने आयें और अधिनियम की धारा 4 में दिए गए प्राविधानों को इमानदारी से लागू ही नहीं बल्कि नियमित रूप से उसका अद्यतन भी करें।सरकारी अभिलेखों के मात्र स्वीकृत करने से ही रिकार्डकी प्रक्रिया पूरी नहीं की जा सकती। आज जरूरत है कि सिस्टम/व्यापार प्रक्रियाओं में नये सिरे से इस तरह की इंजिनियरिंग की जाय कि संगठन की दक्षता में सुधार हो और अभिलेखों के कम्पटूरीकरण का स्वरूप भी जनता को दिखे। यही नहीं सरकारी क्षेत्रों में जानकारी की उपयोगिता का अधिकतम लाभ उसके हितधारकों को मिले। परन्तु अगर आप देखें तो इस भूमिका में सीआईसी तथा राज्य सूचना आयोगों को कहीं भी सम्मिलित नहीं किया गया है जबकि सूचना आयोग अधिनियम की धारा 4 पर ही आधारित सारी कवायद आयोग के अन्दर करते हैं। आज जरूरत है कि देश के सभी सूचना आयोग वर्ष, 2006 में जारी सीवीसी के दिशा निर्देशों का इमानदारी से पालन करें। सीवीसी ने अपने आदेश में सभी संगठनों को आगाह किया था कि कानूनी प्रक्रियाओं, निविदाओं, व्यावसायिक अनुमति पत्रों, मंजूरी, हेतु, निकासी, लाइसेंस, निर्माण योजनाओं, भूमि से संबधित पट्टे, भवनों सहित अन्य जागीर का रूपांतरण, नगर निगम के अधिकारियों द्वारा योजनाओं, फ्लैटों का आवंटन, रजिष्ट्रार के पास रजिस्ट्रेशन आवेदनों का विवरण, ठेकेदारों, आपूर्तिकर्ताओं, सलाहकार, विव्क्रेताओं आदि के पंजीकरण आवेदन की मंजूरी, परिवहन क्षेत्र में बाहनों की निकासी, उनके रजिस्ट्र्रेशन, आरटीए द्वारा फिटनेस प्रमाण पत्र, जब्त वाहनों की संख्या एवं उनकी रिहाई आदि का विररण संबन्धी सभी मुद्दे और बुलेटिनों को वेबसाइटपर अप-टू-डेट करते रहें। इसी तरह का दायित्व अब केंद्रीय/राज्य सूचना आयेगों को भी लेना होगा कि अधिनियम की धारा 4 के अनुपालन पर विभाग कितनी मुस्तैदी से कर रहा है। आज सूचना आयोग बहुत ही संकीर्ण ढंग से अपनी जिम्मेदारियां निभा रहा है। आज आयोग केवल आवेदकों द्वारा दाखिल परिवादों पर ही विचार करने वाली संस्था के रूप में काम कर रहा है। अगर आयोग अपनी संकीर्ण विचारधारा का त्याग कर दे तो नागरिक बेहतर समाज सेवक के रूप में आरटीआई कार्यकत्र्ता बनकर कार्य कर सकतें हैं। सूचना आयोगों के दबाव में सरकारी संस्थायें वेबसाइटों पर सूचनायें अनलोड कर सकती हैं। सूचना आयोग के आयुक्त अपने सेमिनारकरके अधिकारियों को समय-समय पर आगाह भी कर सकते हैं। इसकी आज पूरी संम्भावना है कि सूचना के अधिकार की पूरी क्षमता का उपयोग आधुनिकरण की सोच के साथ सरकारी डोमेनमें बेहतर ढंग से किया जा सकता है। आज सुप्रीम कोर्ट भी कहता फिर रहा है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए आरटीआई एक दुर्जेय उपकरण है। श्री मिश्र ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सूचना की परिधि में लाने संबन्धी अपने पूर्व में पारित आदेश में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को एक वस्तुकार के रूप में परिभाषित किया। न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया के बारे में अगर कोई प्रक्रिया है तो उसके पैरामीटर्सऔर प्रक्रिया के बारे में जानने का अधिकार जनता को है। आरटीआई कार्यकत्र्ता सुभाष अग्रवाल ने जब तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली और भारत के पूर्व न्यायधीश के.जी. बालाकृष्णन के बीच न्यायाधीशों की नियुक्तियों पर किये गये पत्राचार की कापी मांगी तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इंकार कर दिया कि उसके पास पत्राचार का कोई रिकार्ड नहीं है। यह अजीब स्थिति है कि इसका कोई रिकार्ड नहीं है। उन्होंने एक उम्मीद के साथ 10 दिनों के अन्दर पत्राचार सार्वजनिक करने का आदेश जारी कर दिया। हाँ, इसके बावजूद, यदि अदालत का कहता है कि उसके पास कोई पत्राचार नहीं है तो यह समझ लिया जायेगा कि आरटीआई कानून केवल लिखित जानकारी के सौदों में सूचना मांगने के लिए प्रयुक्त होता है। पिछले वर्ष एक समारोह में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने टिप्पणी की थी कि ‘‘आरटीआई कानून सरकारी कर्मचारियों को अपनी स्वतंत्र राय रखने से रोकता है इसलिये कर्मचारियों द्वारा व्यक्त आशंकाओं की जाँच होनी चाहिए।’’ यह बात अपने आप कोई प्रधानमंत्री नहीं कह सकता है। इसका उद्गम निश्चित रूप से वरिष्ठ नौकरशाहों की गोंद से ही हुआ था। हमारा मानना है कि सरकार वैâसे और किस तरह की नीतियों पर चल रही है उसके बारे में जानना जनता का हक बनता है। सरकार के वरिष्ठ नौकरशाहों की शंकाओं का निवारण जरूरी है तभी वह स्वच्छन्द रूप से काम कर सवेंâगे। आज नौकरशाह पूछताछ के डर से आदेश पारित नहीं कर पा रहे हैं क्यों ? आप ऐसा काम ही क्यों करते हैं जिस पर उंगली उठने की गुंजाइस हो। हमें सोचना होगा कि उनके डर को वैसे दूर किया जाय। सार्वजनिक खुलासा से संबधित सरकार को मजबूती से पकड़ कर रखने वाली अधिनियम की धारा 4 (1) के पंख को और तेज और धारदार बनाने   की जरूरत है। देश की सभी नियुक्तियाँ भारत के राष्ट्रपति के नाम होती हैं। यह हमेशा जनता के धारा 4 (1) के पंख को और तेज और सुलभ लिये होनी चाहिए। सीआईसी का मानना है कि उनके 3 साल के कार्यकाल में यह कभी महसूस नहीं किया गया कि आरटीआई कानून में कुछ जोड़ने की जरूरत है।

 आवेदनों के हस्तांतरण पर केन्द्रीय सूचना आयोग के निर्णय

केन्द्रीय सूचना आयोग के सामने एक आवेदन निस्तारण हेतु लाया गया। आवेदकत्र्ता चेतन कोठारी द्वारा सांसदों के द्वारा कुल पेट्रोल खर्च का विवरण मांगा था। इस पर कैविनेट सचिव के स्तर से कहा था कि सूचना एक जगह उपलब्ध नहीे है क्योंकि सूचना देशभर के लोक प्राधिकारियों के पास अलग-अलग रूपों में फैली है। इस मामले को लेकर भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय का कहना था कि सूचना के लिए आवेदन को केवल एक बार स्थानांतरित किया जा सकता है। इस पर केन्द्रीय सूचना आयोग द्वारा भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना १०/२/२००८-आईआर दिनांक १२.६.२००८ को आदेश संख्या डब्ल्यूबी/०६०४२००९-०३ के माध्यम से अधिनियम की धारा १९ (८) (ba) (iv) के अधीन प्रदत्त शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए उसे संशोधित करने का आदेश पारित करते हुए कहा है कि-‘‘यह कानूनी रूप से संगत नहीे है (not consistent with law)’’जबकि कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय द्वारा प्रमुख रूप से कहा गया था कि आवेदनों का स्थानान्तरण केवल एक बार ही किया जा सकता है। इसी को लेकर पहले भी एक अन्य वाद में आयोग द्वारा संशोधित करने की सिफारिश की गई थी। तब पूर्व वेंâद्रीय सूचना आयुक्त शैलेष गांधी ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि“There are numerous instances where RTI applications have been transferred by one public authority to another and none of them appears to know where the information is.”

यदि आवेदन के साथ निर्धारित शुल्क अथवा गरीबी रेखा के नीचे का प्रमाणपत्र संलग्न है, तब सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचनाओं के लिए प्राप्त आवेदन दूसरे सूचना अधिकारी के पास स्थानांतरित करने से पहले, जनसूचना अधिकारी को देखना चाहिये कि क्या आवेदन की विषय वस्तु अथवा उसका कोई खण्ड किसी अन्य लोक प्राधिकारी से संम्बधित तो नही है। यदि आवेदन की विषय-वस्तु किसी अन्य लोक प्राधिकारी से संम्बधित हो तो उक्त आवेदन को संम्बद्ध लोक प्राधिकरण को अधिनियम की धारा ६ (३) के तहत हस्तान्तरित करना चाहिये। यदि आवेदन आंशिक रूप से किसी अन्य लोक प्राधिकरण से संम्बधित है, तो उस लोक प्राधिकरण से सम्बधित खण्ड को स्पष्ट रूप से विनिर्दिष्ट करते हुये आवेदन की एक प्रति उस लोक प्राधिकरण को भेज देनी चाहिये। आवेदन का हस्तान्तरण करते समय अथवा उसकी प्रति भेजते समय सम्बधित लोक प्राधिकरण को सूचित किया जाना चाहिये कि आवेदन शुल्क प्राप्त कर लिया गया है।आवेदक को उसके आवेदन के हस्तान्तरण के बारे मे तथा उस लोक प्राधिकरण, जिसको उसका आवेदन अथवा उसकी एक प्रति भेजी गयी है,के व्यौरों के बारे मे भी सूचित कर देना चाहिये।आवेदन अथवा उसके भाग का हस्तान्तरण जितना जल्दी संभव हो कर देना चाहिये। यह ध्यान रखा जाय कि हस्तान्तरण करने में आवेदन के प्राप्ति की तारीख से ५ दिन से अधिक का समय न लगे।यदि कोई जन सूचना अधिकारी किसी आवेदन की प्राप्ति के ५ दिन के बाद हस्तान्तरित करता है तो उस आवेदन के निपटान में होने वाले विलम्ब में से इतने समय के लिये वह जिम्मेदार होगा जिसने स्थानांन्तरण में ५ दिन से अधिक समय लगाया है।उस लोक प्राधिकरण का जन सूचना अधिकारी जिसे आवेदन हस्तान्तरित किया गया है, इस आधार पर आवेन को नांमजूर कर सकता है कि उसे आवेदन ५ दिन के भीतर हस्तान्तरित नहीं किया गया।कोई लोक प्राधिकरण अपने लिये यदि आवश्यक समझे उतने ही जन सूचना अधिकारी नामित कर सकता है।यह संम्भव है कि ऐसे लोक प्राधिकरण जिसमे एक से अधिक जन सूचना अधिकारी,कोई आवेदन संम्बधित जन सूचना अधिकारी के बजाय किसी अन्य जन सूचना अधिकारी को प्राप्त हो। ऐसे मामले में आवेदन प्राप्त करने वाले जन सूचना अधिकारी को यथा शीघ्र,अधिमानतःउसी दिन आवेदन को संबधित जन सूचना अधिकारी के पास हस्तान्तरित कर देना चाहिये।हस्तान्तरण के लिये ५ दिन की अवधि केवल तभी लागू होगी जब आवेदन एक लोक प्राधिकरण से दूसरे लोक प्राधिकरण को हस्तान्तरित किया जाता है,न कि तब,जब हस्तान्तरण एक ही प्राधिकरण के एक जन सूचना अधिकारी से दूसरे जन सूचना अधिकारी के बीच हो। (संदर्भ: दिसम्बर २०११ अंक से जनहित में जारी)

धर्मेन्द्र सिंह 

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