किशनगंज के सपनों को हर साल बहा ले जाती है बारिश – रेतुआ नदी पर पक्के पुल की प्रतीक्षा आज भी जारी
मेरे परदादा से लेकर अब तक हम सिर्फ पुल का सपना देख रहे हैं : ग्रामीण

किशनगंज,19मई(के.स.)। धर्मेन्द्र सिंह, जिले के टेढ़गाछ प्रखंड की चलहनिया पंचायत के इस बुज़ुर्ग की आवाज़ में उम्मीद से ज़्यादा हताशा झलक रही थी। कारण साफ़ था – रेतुआ नदी पर बना अस्थायी चचरी पुल पहली ही बारिश में बह गया। और एक बार फिर, गांव का संपर्क टूट गया।
हर साल बहता है भरोसा
नेपाल के तराई क्षेत्रों में भारी बारिश के चलते रेतुआ नदी उफान पर है। इस नदी पर बना लकड़ी और बांस का अस्थायी चचरी पुल, जो सैकड़ों ग्रामीणों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी की रीढ़ था, बारिश के पहले ही झटके में बह गया। इसके साथ बह गईं स्कूली बच्चों की पढ़ाई की राहें, बीमारों की अस्पताल तक पहुंचने की उम्मीदें और एक बेहतर भविष्य की चाह।
आज़ादी के बाद से अधूरी मांग
चिल्हनिया पंचायत के ग्रामीण बताते हैं कि इस नदी पर पक्के पुल की मांग वे आज़ादी के समय से करते आ रहे हैं। चुनावों के दौरान नेता आते हैं, वादे करते हैं, लेकिन नदी पर कभी भी स्थायी पुल नहीं बन पाया। हर साल बाढ़ आती है, रास्ते टूटते हैं और लोग फिर से उसी संघर्ष में लौट जाते हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य सबसे अधिक प्रभावित
स्थानीय विद्यालयों – घनीफुलसरा प्रोजेक्ट उच्च विद्यालय और आसपास के पांच मध्य विद्यालयों – की पढ़ाई बुरी तरह प्रभावित हो रही है। स्कूली बच्चे या तो जोखिम उठाकर नदी पार करते हैं या घर पर ही रह जाते हैं। कई माता-पिता अपने बच्चों को नाव से भेजने से डरते हैं, जिससे पढ़ाई लगातार बाधित होती है।
“वादे नहीं, समाधान चाहिए”
थके हुए, लेकिन उम्मीद न खोने वाले ग्रामीणों की सरकार से अब सीधी अपील है – “हमारे टैक्स का सही उपयोग कीजिए। वादे बहुत हुए, अब हम समाधान चाहते हैं।” ग्रामीणों की यह आवाज़ केवल किशनगंज की नहीं, बल्कि पूरे देश के उन कोनों की है जहां बुनियादी सुविधाएं आज भी एक सपना हैं।
गौर करे कि किशनगंज की यह कहानी बताती है कि विकास की असली परीक्षा कंक्रीट के पुलों से नहीं, बल्कि उन गांवों की उम्मीदों से होती है जो हर साल बाढ़ में बह जाते हैं – और फिर भी अगली बारिश तक सपने देखना नहीं छोड़ते।