बाबरी विध्वंस दर्दनाक लम्हों की दास्तां के 25 साल…
80 के दशक में सरयू नदी के तट पर बसा अयोध्या साल में सिर्फ एक बार सुर्खियों में आता था,जब मानसून के दिनों में नेपाल से भारत आने वाली नदियों में बाढ़ आती थी।या फिर पांच सालों में एक बार,जब चुनाव के दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी फैजाबाद और अयोध्या को लाल रंग से रंग देती थी।कई सालों तक फैजाबाद मध्य उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्टों का गढ़ बना रहा।लेकिन यह सब जल्द ही बदलने वाला था। इसकी जड़ें हजारों मील दूर दक्षिण भारत के एक छोटे से गांव में थीं।जनवरी 1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम गांव के 200 दलितों ने जाति भेद के खिलाफ विद्रोह करते हुए इस्लाम कुबूल कर लिया। इसके बाद शुरू हुआ उन घटनाओं का सिलसिला जिनके चलते बाबरी
मस्जिद ढहा दी गई।मीनाक्षीपुरम में दलितों के धर्म परिवर्तन से लेकर मंडल-कमंडल आंदोलन तक की घटनाओं ने भारतीय राजनीति को बुरी तरह प्रभावित किया।इस दशक ने आने वाले कई दशकों के लिए सामाजिक-राजनीतिक तानेबाने को बदलकर रख दिया।बाबरी विध्वंस की 25वीं बरसी पर kewalsachlive.in स्वतंत्र भारत की राजनीति के सबसे उतार-चढ़ाव भरे दौर की घटनाओं पर एक नजर डाल रहा है।यह कहानी हम उन किरदारों के जरिए बता रहे हैं जिनकी जिंदगी इन घटनाओं में उलझ कर रह गई।राम मंदिर आंदोलन से जुड़े इनमें से कुछ लोग ताकतवर नेता बन गए,वहीं कई कारसेवक अब भी मंदिर के लिए मरने को तैयार हैं। दक्षिण बिहार के छोटा नागपुर डिविजन से कारसेवकों
के एक छोटे जत्थे के साथ मेघनाथ उरांव अयोध्या पहुंचे थे।विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के गया क्षेत्र के एक अधिकारी की अगुवाई में विवादास्पद स्थल से लगभग एक मील की दूरी पर इस समूह ने कैंप किया।अयोध्या पहुंचने के बाद से उरांव व्याकुल थे।उन्होंने बाबरी मस्जिद जिस जगह पर है,वहां एक भव्य राम मंदिर के शिलान्यास करने का प्रण किया था।उनका यह भी प्रण था कि अगर वे ऐसा नहीं कर पाए तो वे अपने गांव वापस नहीं जाएंगे।उनकी व्याकुलता और इससे पैदा होने वाली खौफनाक स्थिति से बचने के लिए बिहार के जनजातीय जिलों में वीएचपी के प्रभारी और ज्वाइंट सेक्रेटरी कामेश्वर चौपाल को उन पर नजर रखने के लिए कहा गया। 9 नवंबर,1989 की तारीख को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और वीएचपी के नेताओं ने शिलान्यास के लिए चुना, ताकि अयोध्या में प्रस्ताविक भव्य मंदिर का आधार रखा जा सके। यह वीएचपी की अगुवाई और आरएसएस के समर्थन में चल रहे
एक दशक लंबे अभियान की परिणति थी।बुधवार की उस सुबह चौपाल को खोजने वीएचपी नेता अशोक सिंघल के करीबी सहयोगी रामेश्वर आए थे।आरएसएस के पूर्णकालिक 34 वर्षीय प्रचारक चौपाल को रामेश्वर ने कहा कि सबकुछ छोड़िए और मेरे साथ आइए,सिंघल जी ने आपको बुलाया है।विवादास्पद स्थल के बेहद करीब शिलान्यास की जगह चौपाल को सिंघल के बगल में सम्मानपूर्वक बैठाया गया।स्वामी चिन्मयानंद जो बाद में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी बने थे,इस समारोह के प्रमुख थे।राजमाता विजयाराजे सिंधिया,साधु-संत सभी यहां उपस्थित थे।इस तरह पूजा शुरू हुई।25 साल बाद इस पूरी घटना को याद करते हुए चौपाल कहते हैं,जो कुछ हो रहा था,उसका मुझे शायद ही कोई भान था।टॉप हिंदू धार्मिक नेताओं के साथ उस जगह बैठा मैं एक साधारण कार्यकर्ता था।इस समारोह के लिए गुरुओं की बड़ी फौज के बीच वीएचपी ने बिहार के सहरसा के एक दलित लड़के को अयोध्या में राम मंदिर के शिलान्यास का पहला पत्थर रखने के लिए चुना गया। मंदिर आंदोलन 90 के दशक के शुरू में तब सामने
आया,जब तमिलनाडु के छोटे से शहर तेनकाशी के पास मीनाक्षीपुरम अचानक राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियों में आया।1981 के फरवरी में ऊंची जातियों के दमन के खिलाफ दलितों ने विद्रोह किया था और एक साथ 200 दलित परिवार इस्लाम में कन्वर्ट हो गए थे।तत्कालीन आरएसएस प्रमुख मधुकर दत्तात्रेय देवरस ने संघ की इकाइयों में से एक को फिर से सक्रिय कर देश में हिंदुओं के दूसरे धर्मों में परिवर्तन के खिलाफ अभियान चलाने का भी निर्णय लिया।आरएसएस की इस इकाई का निर्माण दूसरे आरएसएस प्रमुख एम एस गोलवलकर द्वारा छठे दशक के बीच में किया गया था और इस मकसद के लिए संघ के कई पूर्णकालिक प्रचारकों को वीएचपी में भेजा गया था।ऐसे लोगों की लिस्ट में बनारस हिंदू विश्व विद्यालय का एक इंजीनियर भी था,जो तभी दिल्ली का प्रांत प्रचारक था।अशोक सिंघल यही शख्स थे।पूर्वी यूपी के एक अन्य पूर्णकालिक प्रचारक ओंकार भवे को भी यह काम सौंपा गया था।इसी तरह उत्तर बिहार के कम जाने माने प्रचारक कामेश्वर चौपाल को इस काम में लगाया गया था।12 जुलाई,1981 को आरएसएस की नेशनल एग्जीक्यूटिव (अखिल भारतीय कार्यकर्ता मंडल) ने धर्मांतरण के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया।इसी साल वीएचपी ने धर्मांतरण को रोकने के लिए पहला प्रोग्राम शुरू किया।इसे संस्कृति रक्षा निधि योजना कहा गया।आरएसएस के वरिष्ठ प्रचारक और मास्टर रणनीतिकार मोरेश्वर नीलकंठ पिंगले जिन्हें आरएसएस में मोरोपंत पिंगले के नाम से जाना जाता था,उन्होंने धर्मांतरण के खिलाफ अभियान चलाया।वीएचपी की एकात्म यात्रा के पीछे उन्हीं का दिमाग था,जिसका मकसद हिंदुओं के बीच जातिगत धारणाएं और सीमाएं खत्म करना था।यही वह समय था, जब इंदिरा गांधी आपातकाल के बाद मजबूती के साथ सत्ता में आई थी। 1983 में
नई कांग्रेस में अलग-थलग कर दिए गए कुछ वरिष्ठ कांग्रेसियों ने पश्चिमी यूपी के मुजफ्फरनगर में एक बैठक की।आरएसएस के प्रचारक प्रोफेसर राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जू भैया जो बाद में संघ प्रमुख बने थे,उन्होंने भी इस बैठक में हिस्सा लिया था।इसके बाद यूपी के प्रमुख कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री डी डी खन्ना ने इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर हिंदुओं के तीन धार्मिक स्थल-मथुरा,काशी और अयोध्या की पुनर्स्थापना के लिए कहा था।हालांकि गांधी ने इसे आग्रह को नजरअंदाज कर दिया।इसके लगभग एक साल बाद वीएचपी ने दिल्ली के विज्ञान भवन में एक भव्य हिंदू सम्मेलन आयोजित किया।इसमें गोरखनाथ मंदिर के प्रमुख महंत अवैद्यनाथ के नेतृत्व में राम जन्मभूमि मुक्ति संघर्ष समिति का गठन किया गया।इन्हीं के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ इस घटना के 25 साल बाद यूपी के मुख्यमंत्री बने।कामेश्वर चौपाल जैसे वीएचपी के लोगों को राम मंदिर आंदोलन के लिए लोगों को तैयार करने के लिए कहा गया।लोगों का समर्थन जुटाने के लिए यात्राओं की श्रृंखला आयोजित की गई।चौपाल बताते हैं,इन यात्राओं में से एक मुझे पूरी तरह याद है।राम-जानकी नामक यह यात्रा बिहार के सीतामढ़ी से अयोध्या तक की थी,ताकि राम और सीता के जन्मस्थल को जोड़ा जा सके।1984 के अक्टूबर में इंदिरा गांधी की हत्या और उसके बाद की हिंसा ने हालांकि राजनीति की पूरी परिभाषा बदल कर रख दी।अगले साल राजीव गांधी ने लोकसभा का चुनाव दो-तिहाई बहुमत से जीता और भाजपा 545 एमपी वाली लोकसभा में दो सीटों पर सिमट गई।एक साल बाद वीएचपी को मंदिर आंदोलन को पुनर्जीवित करने का बड़ा अवसर मिला।कुछ राजनीतिक इतिहासकार कहते हैं कि राजीव गांधी ने ऐसा करने का अवसर दिया।मुस्लिम गुरुओं के दबाव में कांग्रेस की सरकार ने एलीमनी यानी गुजारा-भत्ता के प्रावधान को खत्म करने के लिए शरीयत के अनुरूप कानून बना डाला,इस तरह शाह बानो केस में एक सिविल कोर्ट के आदेश को बदल दिया गया।मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप के कारण कांग्रेस ने हिंदू भावनाओं को तुष्ट करने की कोशिश की।फैजाबाद के वकील उमेश चंद्र पांडे ने 25 जनवरी,1985 को मुंसिफ-सदर के समक्ष एक याचिका दायर की,जिसमें बाबरी मस्जिद के गेट को खोलने का आग्रह किया गया। एक साल बाद जैसे ही बीएचपी ने आंदोलन को आगे बढ़ाने का दबाव बनाया, भाजपा ने अपने
पालमपुर नेशनल एग्जीक्यूटिव में राम मंदिर को अपने राजनीतिक एजेंडे में औपचारिक रूप से शामिल कर लिया।बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच करने वाले लिब्रहान कमीशन के सामने पेश होते हुए कई साल बाद एल के आडवाणी ने वे तीन कारण गिनाए,जिन्होंने भाजपा को मंदिर आंदोलन को उठाने के लिए विवश किया।तत्कालीन वाजपेयी सरकार में उप-प्रधानमंत्री आडवाणी ने कमीशन को बताया,अगर शाह बानो मामला नहीं हुआ होता,अगर राजीव गांधी सरकार ने शिलान्यास या राम मंदिर के गेट खुलवाने में हिस्सा नहीं लिया होता या कहिए सहयोग नहीं किया होता तो संभव है कि ऐसा उस समय नहीं हुआ होता,जब 1989 में हम अयोध्या मामले पर विचार कर रहे थे।शिलान्यास के बाद कामेश्वर चौपाल बिहार के अपने गांव लौट गए।गांव के ब्राहृमण परिवार के एक प्रमुख बलदेव झा ने संदेश भेजकर उनसे मिलने की इच्छा जताई।चौपाल ने बताया,‘हम सदियों तक दासता में जीते आ रहे थे,इसलिए मैं उनसे मिलने के प्रति अनिच्छुक था,लेकिन मेरे पिता ने मुझे समझाकर उनसे मिलने भेजा।मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब बलदेव बाबू ने मेरे हाथ पकड़कर अपने बगल में बैठाया और अपने परिवार के सभी सदस्यों से मेरे पैर छुने के लिए कहा।उन लोगों ने अखबारों में मेरे बारे में पढ़ा था।बलदेव बाबू ने मेरे हाथ से चाय का कप लिया,जबकि अभी तक एक दलित का ऊपर की जाति के लोगों के पास जाने का मतलब बर्तन साफ करना ही होता था।इस तरह सदियों की वह दासता खत्म हो गई थी।उस
दिन मैं बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोया।बोफोर्स मामले और अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण जैसे आरोपों का सामना कर रही कांग्रेस पार्टी ने अगले बड़े चुनाव की तैयारी शुरू कर दी थी।वीर बहादुर सिंह की जगह एन डी तिवारी यूपी के मुख्यमंत्री बने।इस बीच वीएचपी और भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर के पक्ष में समर्थन भी जुटाती रही।जिस समय तिवारी और केंद्रीय गृह मंत्री बूटा सिंह संघ परिवार से इस मामले में बात कर रहे थे,उसी समय राजीव गांधी ने चुनाव के लिए लोकसभा भंग कर दी। शिलान्यास से एक सप्ताह पहले 1989 के नवंबर में राजीव गांधी ने अयोध्या से ही अपना चुनाव अभियान शुरू करते हुए वादा किया कि अगले कार्यकाल में राम राज्य बनाने में वह मदद करेंगे।अयोध्या से जुड़ी उनकी रणनीति ने आरएसएस के इस अभियान को और मजबूती दी।यह ऐसा अवसर था,जिसका आरएसएस और उनके सहयोगी संगठन स्वतंत्रता के समय से ही इंतजार करते आ रहे थे।राम मंदिर आंदोलन के कारण कई राजनेताओं ने अपने करियर बनाए।इस समय 65 साल के कामेश्वर चौपाल किडनी की समस्या से जूझ रहे हैं।एम्स में डॉक्टर से मिलने वह दिल्ली में हैं और इस समय पहाड़गंज की एक अंधेरी गली के एक सस्ते लॉज में रुके हुए हैं,जो न्यू
दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने है।चौपाल ने कहा, ‘शिलान्यास ने मुझे तुरंत ख्याति दिलाई,तुरंत मुझे राजनीति में काम करने के लिए भी कहा गया।चौपाल ने 1991 में भाजपा के टिकट पर रोसरा से लोकसभा चुनाव लड़ा,लेकिन हार गए।उन्होंने 1995 में विधानसभा चुनाव लड़ा।पांच साल बाद उन्हें बिहार विधान परिषद के लिए नामांकित किया गया,जहां उन्होंने दो कार्यकाल गुजारे।2014 के आम चुनाव के पहले जेडीयू ने भाजपा के साथ अपने संबंध तोड़ लिए।भाजपा ने उन्हें सामान्य सीट से चुनाव लड़ने के लिए कहा और चौपाल पप्पू यादव की पत्नी और कांग्रेस की उम्मीदवार रंजीता रंजन से हार गए।आरएसएस,वीएचपी और भाजपा के साथ इतने सालों के संबंध के बाद चौपाल का कहना है कि अब उन्हें और किसी चीज की इच्छा नहीं रही है।कोई साहसी व्यक्ति अयोध्या में राम मंदिर बनाएगा,जिसके शिलान्यास का पहला पत्थर उन्होंने रखा था।कोई न कोई कुल्हाड़ी चलेगी और लकड़ी कट जाएगी।
रिपोर्ट-वरिष्ठ पत्रकार की रिपोर्ट