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यह मामला करीब ढाई दशक पुराना, दावे को लगातार मिलती चुनौती…..

अयोध्या के विवादास्पद ढांचे को गिराए जाने के मामले में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और अन्य लोगों पर सीबीआइ की विशेष अदालत ने ढांचा ध्वंस की आपराधिक साजिश रचने, धार्मिक भावनाएं भड़काने एवं राष्ट्रीय एकता को नुकसान पहुंचाने जैसे गंभीर आरोप भले तय कर दिए हों, लेकिन उन्हें साबित कर पाना आसान नहीं होगा।एक तो यह मामला करीब ढाई दशक पुराना है और दूसरे इस दावे को लगातार चुनौती मिलती रही है कि ढांचे को गिराने की कोई साजिश रची गई थी।आम धारणा यही है कि आवेश में आई भीड़ के बेकाबू हो जाने का नतीजा था अयोध्या ढांचे का ध्वंस।यदि ढांचा ध्वंस की कोई साजिश रही भी होगी तो यह कहना कठिन है कि उसमें आडवाणी और जोशी जैसे नेता भी भागीदार थे।सच जो भी हो, जांच एजेंसियां और कानून किसी धारणा के आधार पर काम नहीं कर सकते।अच्छा होता कि यह मामला अदालतों की भूल-भुलैया का शिकार नहीं हुआ होता और साथ ही प्रारंभ में ही गफलत से बचा गया होता। यह समझना कठिन है कि ढांचा ध्वंस को लेकर कारसेवकों और भाजपा एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं पर अलग-अलग मामले क्यों दर्ज किए गए ? न केवल ऐसा हुआ,बल्कि एक मामले की सुनवाई उत्तर प्रदेश सीआइडी को सौंपी गई और दूसरी सीबीआइ को।इसके बाद एक मामला रायबरेली की अदालत में चला और दूसरा लखनऊ की अदालत में। आखिर जब यह सब हो रहा था तब किसी को भी यह सामान्य सी बात क्यों नहीं सूझी कि एक ही मामले में दो अलग-अलग जांच और सुनवाई का क्या औचित्य ? यह भी एक विडंबना है कि जब रायबरेली की अदालत में चल रहे मामले को लखनऊ की अदालत में स्थानांतरित करने की अर्जी दी गई तो उसे खारिज कर दिया गया।इस सबके बीच लिब्रहान आयोग की भूमिका को भी याद करना आवश्यक है।इस आयोग ने मंथर गति से काम करने के मामले में रिकार्ड बनाया और 17 साल बाद जो रपट दी भी वह किसी काम की नहीं थी।यह भी न्याय प्रक्रिया में देरी का ही उदाहरण है कि आडवाणी, जोशी एवं अन्य नेताओं के खिलाफ चल रहे मामले को उच्च न्यायालय की ओर से खारिज किए जाने के खिलाफ जो याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई उसकी सुनवाई में करीब छह साल लग गए।क्या इस पर संतोष कर लिया जाए कि सुप्रीम कोर्ट ने फिर से मामले को चलाने का आदेश देते हुए यह भी कहा है कि इस प्रकरण की सुनवाई एक निश्चित समय सीमा में की जाए ? शायद ऐसा ही हो, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यह मामला न्याय में देरी को नए सिरे से रेखांकित करता है।ऐसी ही देरी अयोध्या में मंदिर-मस्जिद विवाद को सुलझाने के मामले में हो रही है।यह मामला आजादी के तत्काल बाद ही अदालत के समक्ष पहुंच गया था और देश को अभी भी अंतिम फैसले की प्रतीक्षा है।कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस विवाद के हल में मध्यस्थता करने की रुचि दिखाई थी,फिर इस मामूली आधार पर पीछे हट गया कि जल्द सुनवाई की याचिका देने वाले का इस प्रकरण से सीधा संबंध नहीं।ऐसे रवैये से तो और देर ही होनी है।

रिपोर्ट-अपना विचार धर्मेन्द्र सिंह 

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